Saturday, July 26, 2008

होई हैं सोई जो राम रचि राखा दाऊ वासुदेव चन्द्राकर जी की जीवनी

रामप्यारा पारकर

दाऊ वासुदेव चन्द्राकर का जन्म २६ मार्च १९२८ को दुर्ग जिला में रिसामा ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम रामदयाल तथा माता का नाम सतवंतिन बाई था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा चौथी कक्षा तक प्राथमिक शाला मतवारी से प्राप्त् की। तब रामदयाल जी का परिवार मतवारी स्थानांतरित हो चुका था। वहां उन्होंने अपना मकान दान देकर प्रायमरी स्कूल खुलवाया था। प्राथमिक शिक्षा के बाद बालक वासुदेव ने शासकीय बहुद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला दुर्ग में प्रवेश लेकर आठवी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त् की। दुर्ग में वे सिकोसा फर्शी खदान वाले वासुदेव देशमुख के मकान में रहते थे। श्री वासुदेव देशमुख कामठी से आकर दुर्ग में बसे थे तथा वे मराठा तेली थे। वे दुर्ग जिले की राजनीति में सक्रिय थे। वे दो माताओं से दस भाई थे, प्रत्येक मां से पांच पांच तथा अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका मकान तहसीली के पास था, वहीं रहकर बालक वासुदेव ने मिडिल स्कूल की पढ़ाई पूरी की। बाद में देशमुख परिवार वर्तमान सिंधी कालोनी तामस्कर जी के मकान के पास स्थानांतरित हो गया।

जब वासुदेव चन्द्राकर दुर्ग में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तब देश की आजादी की लड़ाई चरमसीमा पर पहुंच चुकी थी। १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन शुरु होते ही स्वतंत्रता सेनारियों की धर पकड़ की जा रही थी, अत: वासुदेव देशमुख जी भूमिगत हो गए। वे कहां गए पता नहीं चला। अब उनके भाई आंदोलन में सक्रिय हो गए। उम्र में वे सभी वासुदेव चन्द्राकर से बड़े थे। उनके साथ झंडा लेकर वासुदेव भी पांच कंडिल के पास चले जाते थे। इस प्रकार उन्हें विद्यार्थी जीवन में ही राजनीतिक परिवेश में रहने का अवसर मिला। पढ़ाई-लिखाई में वे सामान्य थे लेकिन गणित की परीक्षा में असाधारण योग्यता रखते थे। केवल गणित विषय की परीक्षा में शत प्रतिशत अंक प्राप्त् करते थे तथा एक कक्षा आगे का भी गणित हल कर लेते थे। देशमुख बंधुओं के मकान के बगल में सिटी पुलिस थाना था। वहां एक सर्किल इंसपेक्टर थे, घुई साहब। उनकी पुत्री वासुदेव के साथ पढ़ती थी। वह घुई साहब की इकलौती बेटी थी। वह गणित की पढ़ाई में कमजोर थी। घुई साहब वासुदेव की प्रतिभा से खुश होकर उन्हें अपनी बेटी को घर में गणित पढ़ाने का कार्य सौंप दिये थे तथा उन्हें बेटा जैसा ही मानते थे। वे अक्सर घोड़े से दौरा करते थे। जब भी वासुदेव आंदोलन में भाग लेने पांच कंडिल (गांधी चौक) जाते, उन्हें अन्य लोगों के साथ पकड़कर थाना जरुर लाया जाता, पर उन्हें वहीं रोक लिया जाता जबकि बाकी सभी जेल भेज दिये जाते थे। घुई साहब पुलिस वालों से कहते - इन्हें सुबह मेरे पास ले आना। सुबह जैसे ही वासुदेव उनके घर जाते, वे दो तीन डंडा जड़ते हुए कहते। अभी पंद्रह साल के हो, तुम्हारे पढ़ने का समय है, पहले पढ़ाई पूरी करो। आंदोलन के चक्कर में मत पड़ो।और फिर बड़े प्यार से समझाबुझा कर घर वापस भेज देेते थे। ऐसा अनेंकों बार हुआ। पर छात्र वासुदेव का मन पढ़ाई में कम आंदोलन में अधिक लग रहा था। अंत में परेशान होकर उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी तथा भटभेरा (रायपुर) चले गए। भटभेरा गांव बलौदाबाजार तहसील में है, वहां से तिल्दा व भाटापारा समान दूरी पर है। वे वहां एक साल व्यतीत किए और १९४३ के अंत में नागपुर चले गए। वहां मगनलाल बागड़ी नामक एक क्रांतिकारी रहते थे। वे आजादी की लड़ाई में अनेक पुलिस थाना जला चुके थे। वे बड़े हट्टे-कट्टे व धाकड़ थेतथा स्वयं के शरीर में पिस्तौल छिपाने की जगह बना लिये थे। उन्हें २५ साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी। उनका ससुराल डोंगरगढ़ में था। वे अक्सर वहां आते तथा छिपने के लिए मनगटा डोंगरी में शरण लेते थे। इसकी हल्की सी जानकारी वासुदेव को मिली और वे उनसे मिलने की उत्कृष्ट अभिलाषा संजोए हुए सीधे मनगटा डोंगरी पहुंच गए। वहां उनकी भेंट भी हो गई। बागड़ी जी ने उन्हें सीताबर्डी नागपुर का पता दिया और बोले - तुम कभी भी जाकर लालसेना में भर्ती हो जाना। सीताबऱ्डी में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का कार्यालय था। इस पार्टी के निर्माता थे, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया, एन.जी. गोरे, अच्युत पटवर्धन, एस.एन. जोशी, अरुणा आसफ अली, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, साने गुरुजी तथा मगनलाल बागड़ी। ये सभी नेता मिलकर कांग्रेस के अंतर्गत शोशलिस्ट पार्टी बनाए थे। बागड़ी जी ने वासुदेव को वहीं जाकर काम करने का निर्देश दिया। तदनुसार १९४५-४६ में वे छ:माह से भी अधिक समय तक नागपुर में रहे। इस बीच पढ़ाई छोड़कर लापता हुए पुत्र की खोज खबर दाऊ रामदयाल जी करते रहे। पता चलते ही वे उन्हें घर वापस बुला लिए तथा शादी की बात चलाने लगे। घर में बांधकर रखने का उन्होंने यही सरल तरीका खोज निकाला था। वे पहले से ही लड़की देखकर रखे थे। इस प्रकार वासुदेव का विवाह १९ साल की उम्र में १९४६ में संपन्न हो गया। एक साल बाद उनका गौना हुआ। उन दिनों बैलगाड़ी का जमाना था। बड़े धूमधाम से बैलगाड़ी में बारात लेकर वे भर्रेगांव गए थे।

१५ अगस्त १९४७ को देश आजाद हो गया। बागड़ी जी जेल से रिहा कर दिए गये। दाऊ वासुदेव चन्द्राकर उनसे मिलने अधीर हो उठे। नवविवाहित जीवन की बेड़ियां उन्हें रोक नहीं सकी। वे नागपुर पहुंच ही गये। बागड़ी जी का सान्निध्य पाकर ही उन्हें संतोष मिला। वे दो महीने नागपुर में रहे। अंत में बागड़ी जी ने उनसे कहा - अपना पता दे दिए रहो। जरुरत पड़ने पर बुला लेंगे। इस प्रकार वे वापस भेज दिए गए। आजादी के बाद देश के ६०० रजवाड़े भारतीय संघ में विलीन हो गए लेकिन निजाम हैदराबाद तैयार नहीं हुआ। उन्हें सरदार पटेल ने स्पष्ट बता दिया - स्वतंत्र रहना चाहते हो तो कोई बात नहीं है, लेकिन कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने पर हस्तक्षेप करना पड़ेगा। राजा महाराजाओं को उनके प्रिवीपर्स व संपत्ति की सुरक्षा का आश्वासन दिया गयाअत: वे संतुष्ट थे। इसी बीच निजाम की मृत्यु हो गई। उनकी लड़कियां ही वारिस थीं। कासिम रिजवी नामक निजाम के एक तेजर्रार व्यक्ति ने रजाकार सेना का गठनकर निजाम हैदराबाद में अपना हुक्म चलाना शुरु किया। यह बहुतों को नागवार गुजरा फलत: वहां आये दिन हत्या व आपसी मुठभेड़ की घटनाएं होने लगी। इसी दौर में बागड़ी जी का पत्र दाऊजी को मिला। उन्हें तत्काल नागपुर पहुंचने कहा गया था। केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार पटेल ने सी.पी. बरार के गृह मंत्री पं. डी.पी. मिश्रा को आदेश दिया था कि बागड़ी जी को जितना हथियार चाहें दे दिया जाय। वे रजाकारों के साथ युद्ध करेंगे। फलत: बागड़ी जी के नेतृत्व में लाल सेना के लगभग दस हजार सैनिकों को बंदूकें देकर हैदराबाद की सीमा में तैनात किया गया। रजाकारों से मुठभेड़ शुरु हो गया। लाल सेना तथा रजाकारों के मुठभेड़ की खबर समाचार पत्रों में छपने लगी। इसी लालसेना के एक कर्मठ सिपाही दाऊ वासुदेव चन्द्राकर भी थे। चूंकि निजाम हैदराबाद को कानून व्यवस्था की स्थिति स्वयं संभालने की शर्त पर स्वतंत्र किया गया था, अत: अब हस्तक्षेप का बहाना मिल गया। सरदार पटेल ने सेना भेजकर हैदराबाद को घेर लिया और अतंत: निजाम हैदराबाद भारतीय संघ में शामिल हो गया। फ्रंट से वापस नागपुर आने पर बागड़ी जी ने वासुदेव से पुन: कहा, सेना का काम पूरा हो चुका है अत: दुर्ग वापस जाकर शोशलिस्ट पार्टी का काम देखो। उन दिनों दुर्ग में कांग्रेस शोशलिस्ट पार्टी का कार्यालय छीतरमल धर्मशाला में था जो बाद में पोलसाय पारा में स्थानांतरित कर दिया गया।

१९५० में कांग्रेस के जयपुर अधिवेशन में सरदार पटेल ने प्रस्ताव रखा कि आजादी की लड़ाई में कांग्रेस शोशलिस्ट पार्टी की उपयोगिता थी। अब उसकी उपयोगिता समाप्त् हो गई अत: उसके सभी कार्यकर्ता कांग्रेस में शामिल हो जाय अथवा नया दल गठित कर लें। कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता विलीनकरण का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किए। इसी बीच आचार्य नरेन्द्र देव का निधन हो गया। बाकी सभी नेता मिलकर शोशलिस्ट पार्टी बना लिए। दाऊ वासुदेव ने भी इसी नवगठित पार्टी में काम करने का निश्चय किया। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद भी उन्हें घर का आकर्षण अधिक नहीं रहा। वे शोशलिस्ट पार्टी के कार्योंा को ज्यादा तबज्जो देते हुए, जहां जहां भी अधिवेशन हुआ वहां अवश्य गए। तब अखिल भारतीय रेल्वे मेंस कांग्रेस व डाकतार कर्मचारी संघ के अध्यक्ष जयप्रकाश नारायण थे। शोशलिस्ट पार्टी के झंडे का रंग लाल था तथा बीच में पार्टी का चुनाव चिन्ह छपा होता था। पार्टी नेता लाल टोपी लगाते थे, जिससे पता लगता था कि जयप्रकाश जी के अनुयायी हैं। दाऊ जी पटना, कलकत्ता, दिल्ली, कानपुर, मद्रास, बम्बई आदि बड़े शहरों में आयोजित अधिवेशनों में शामिल हुए। पार्टी के नेता के रुप में वे बिना टिकिट यात्रा करते थे व अधिक पैसा भी साथ नहीं रखते थे। जयप्रकाश जी का नाम लेते ही टिकिट निरीक्षक उन्हें न केवल चाय पिलाते बल्कि खाना भी खिला दिया करते थे। लोगों से उनका इतना अधिक परिचय हो चुका था कि वे एक जोड़ी कपड़ा व एक चादर रखकर ही पूरे हिन्दुस्तान की यात्रा कर लिया करते थे। १९५० में दाऊ जी को एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई थी। तब शारदा टाकीज के सामने विशाल मोती ग्राऊंड था। मोती ग्राऊंड के एक कोने में एक कुंआ था जो मोती कुंआ कहलाता था। लोग यहां ही पीने का पानी भरते थे। महात्मा गांधी हाईस्कूल डेलीगेट्स ठहराने की व्यवस्था की गई थी। सी.पी. बरार स्तर के प्रादेशिक नेता बागड़ी डांडेकर आदि सम्मेलन की सफलता हेतु सक्रिय थे। तब अखिल भारतीय किसान संघ के अध्यक्ष रामानंद मित्र थे। दो दिन प्रतिनिधि सम्मेलन हुआ। कुछ तत्कालीन नेता रायपुर जिला से बुलाकी लाल पुजारी, प्रो. जयनारायण पांडे, सरजू प्रसाद तिवारी, शिवलाल मेहता, विजयशंकर दीक्षित व राजेन्द्र प्रसाद चौबे राजनांदगांव से ठाकुर दरबारसिंह, मदन तिवारी, जे.पी.एल. फ्रांसिस तथा पास पड़ोस के नेतागण सम्मेलन की तैयारी में जुटे हुए थे। सम्मेलन की सफलता में दाऊ जी की मेहनत विशेष रंग लाई थी। उन्होंने पूरे जिले का सायकिल से दौरा करके प्रचार किया। वे सुबह निकलते शाम ५ बजे तक मोहला पहुंच जाते। उनके साथ बिसरुराम यादव भी यात्रा करते थे। उनकी सायकिलों में डायनेमो लगा होता था, रात में जंगल में लाइट के लिए। वे लाल श्याम शाह के लोगों को आमंत्रित करके दूसरे ही दिन लौट आए और बेमेतरा की ओर निकल पड़े। प्रात: आठ बजे दोनों साथी निकले। रास्ते में कहीं भी मांगे खाये और आगे बढ़े। कहीं आराम का नाम नहीं। काम के प्रति सच्ची लगन व युवावस्था का जोश जो था। दोनों इतनी तेज रफ्तार से सायकिल चलाते कि रात नौ बजे कवर्धा पहुंच गए, बिना कोई विशेष थकावट महसूस किए। वहां से दो घंटे में सहसपुर लोहारा पहुंचे। उस समय सहसपुर लोहारा थाना में दिवाकर नाम के सब इंस्पेक्टर थे। वे भोजन का पूरा इंतजाम रखे थे। तब केशव गोमास्ता कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे। उनके डर के मारे उन्होंने दोनों को भोजन कराते ही बिदा कर दिया। वहां से दाऊजी व यादव को चचेड़ी जाना था। दिवाकर बोले - कवर्धा की ओर वापस जाओगे तो बीच में एक रपटा पार करने पर बांये तरफ जंगली रास्ता मिलेगा, वही चचेड़ी पहुंचाएगा। दिसम्बर का महीना था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। बीच में एक रपटा के उपर पानी बह रहा था। नाले में काई होने के कारण सायकिल फिसलने से दोनों गिर पड़े। पूरा कपड़ा गीला हो गया। साथ में रखा झोला भी भींग गया। फिर भी धुन के पक्के दोनों साथी हिम्मत नहीं हारे, बढ़ते ही गये। फिर भी धुन के पक्के दोनों साथी हिम्मत नहीं हारे, बढ़ते ही गये। आखिर वह जंगली रास्ता मिल गया। ठंड से ठिठुरते दोनों आगे बढ़ने लगे। बीच रास्ते में एक शेर आराम से बैठा था। बिसरुराम ने सुझाव दिया - सायकल को स्टैंड करके डायनेमो जोरो से चलाओ और फोकस डाले, कुछ तो खिसकेगा। दोनों वैसा ही किए और शेर पूंछ दबाकर जंगल की ओर अदृश्य हो गया। वहां से दो तीन किलोमीटर के बाद प्रकाश दिखा। लालटेन का जमाना था। बस्ती के बाहर कोटवार के घर पर चिमनी टिमटिमा रहा था, उसी का प्रकाश था। कोटवार दम्पत्ति जाग गये। पूछताछ करने पर उसे बताया कि -बाबाजी का गांव जाना है, हम ठिठुर रहे हैं लकड़ी जला दो। इससे हम ठंड से तो बचेंगे ही, जंगली जानवर आएगा तो कुछ नहीं कर पायेगा। कोटवार दम्पत्ति इतने गरीब थे कि बरदाना में सो रहे थे, उनका वही एकमात्र बिछौना था। उनमें आदर सत्कार की भावना इतनी भरी थी कि जहां वे सोये थे वहां से दोनों बिस्तर लाकर अतिथियों को दे दिए। दाऊ जी ने एक बिछौना उन्हें तत्काल वापस कर दिया। कोटवार दम्पत्ति ने छत्तीसगढ़ की मेहमाननवाजी का एक आदर्श नमूना पेश किया था। उनके आतिथ्य से दोनों प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। उनके द्वारा जलायी गयी आग से वे अपने कपड़े भी सुखा लिए तथा गरम आंच में गहरी नींद में सो गए। वे सुबह आठ बजे उठे। वहां से महंत रामशरण दास बाबाजी के गांव पहुंचे, उन्हें सम्मेलन का निमंत्रण दिए और तुरंत वापस हो गए। कवर्धा में नरेन्द्र सिंह ठाकुर, मुखीराम चंद्रवंशी को आमंत्रित करते हुए वापस बेमेतरा आये, वहां धनीसिंह बैस को निमंत्रण देकर दुर्ग वापस आ गए। उस अवधि में दाऊ जी के साथी तिलोचन साहू के अलावा सुदयराम नायक सोरम वाले (उदयराम के समधी), लालजी भाई चौहान, मंत्रीलाल आजाद-अंडा वाले, कृष्णपुरी गोस्वामी-अरसनारा, पं. सीताराम शर्मा-भटगांव वाले हुआ करते थे। गोस्वामी व शर्मा जी की जोड़ी जबर्दस्त थी। सबके सब तैयारी में लगे थे। इधर दाऊजी की कार्यशैली देखकर उनके पिताजी इतने प्रभावित हुए कि उनकी घर निकाला की सजा निरस्त कर दी गई। तब रामदयाल चन्द्राकर परिवार सहित मिलपारा वाले मकान में रहते थे। मिलपारा में चन्द्राकर परिवार की दो राइसमिलें थी। एक एक टन क्षमता की। साथ ही तीन स्पेलर थे, जिनसे अलसी व तिली गरम करने के लिए भूसा जलाया जाता था, नहीं मिलने पर हर्रा की गुठली से काम चलाया जाता था। मिल का नाम था छत्तीसगढ़ राइस एंड आइल मिल। राइस मिल परिसर में ही निवास भी बना था। किसान सम्मेलन में आयी हुई महिला प्रतिनिधियों को वहीं ठहराया गया था। बाकी सभी महात्मा गांधी स्कूल में ठहरे थे । लगभग पांच सात हजार प्रतिनिधि बाहर से आये थे जिनके लिए भोजन की व्यवस्था की गई थी। इस अधिवेशन में स्थानीय प्रतिनिधियों को मिलाकर १५-२० हजार की भीड़ थी। तब तक कस्तूरचंद पुरोहित भी शोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। पुरोहित जी भोजन व्यवस्था सम्हाल रहे थे। यह सम्मेलन पूर्णरुप से सफल रहा, जिससे दाऊ जी की अभिरुचि इस दिशा में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। इसी बीच मालगुजारी उन्मूलन का कार्य शुरु हुआ। गांव गांव में गौंटिया लोग चरीचरागन को अपने नाम चढ़ाने नागर चलवा रहे थे। जहां तक मालगुजार का नागर चला वो उन्ही का, बच गया सो सरकारी। सम्मेलन के बाद दाऊजी ने इसी के विरोध में आंदोलन प्रारंभ किया। इसे अपने गांव मतवारी से ही प्रारंभ करके आदर्श पेश किया। यही कारण था उनके घर निकाला की सजा का। घर से निष्कासित होकर वे कोड़िया ग्राम में डेरा जमा दिए और घास जमीन पर कब्जा रुकवाये। उनके नेतृत्व में वहां गांव भर मिलकर घास जमीन पर उगायी फसल चरा दिए। गांव का दाऊ भी चन्द्राकर था व रिश्तेदार भी था, वे वासुदेव सहित आंदोलन का नेतृत्व करने वालों पर केस दायर कर दिए। इसके बावजूद भी पूरे गांव के किसान संगठित होकर चारागाह पर कब्जा नहीं करने दिए। अनाधिकृत रुप से गांव में जाकर किसानों को उकसाने व फसल चराने को अपराध मानते हुए कोर्ट ने अपने फैसले में जुर्माना किया, जिसे नहीं पटाने पर सजा हुई। पूरे एक दर्शन सत्याग्रहियों को राजनांदगांव जेल भेज दिया गया। दाऊ वासुदेव के साथ बिसरु राम यादव, मंत्रीलाल आजाद व गांव के आठ नौ किसानों को जेलयात्रा करनी पड़ी। इससे दाऊ रामदयाल जी को लगा कि अच्छा नहीं हो रहा है अत: उनकी ममता उमड़ पड़ी। उन्होंने पांच सौ रुपये जुर्माना अदा कर सभी को जेल से छुड़ा लिया।

दाऊजी के जेल से रिहा होने के बाद १९५२ का आम चुनाव हुआ। इसमें शोशलिस्ट पार्टी को बरगद झाड़ छाप मिला था। तत्कालीन एकीकृत दुर्ग जिला के सभी विधानसभा क्षेत्रों से शोशलिस्ट उम्मीदवार खड़ा किए गए। बालोद से इंद्रजीत साहू, कुथरेल से तिलोचन साहू व दुर्ग से वासुदेव चन्द्राकर प्रत्याशी बनाए गए। चंुकि दाऊ जी की उम्र याने २५ वर्ष पूरा होने के संबंध में संदेह था अत: हरिहर शर्मा को डमी प्रत्याशी बनाये जो दाऊजी का फार्म निरस्त होने पर


ुनाव लड़ते। बेमेतरा ड्यूल कांस्टीट्वेन्सी (र्ऊीशश्र उििीर्ळींींीशलिू) से पिकरी वाले धनसिंग बैस तथा छगनलाल माहेश्वरी याने एक हरिजन व एक सामान्य प्रत्याशी मैदान में उतरे। धमधा से शोशलिस्ट प्रत्याशी थे कृष्णा अग्रवाल। कम उम्र के कारण दाऊ जी का नामांकन रद्द हो गया। कुथरेल क्षेत्र से एक प्रत्याशी गंगाराम गड़रिया निकुम वाले की मृत्यु हो जाने पर चुनाव स्थगित हो गया। यहां से कांग्रेस प्रत्याशी मोहनलाल बाकलीवाल थे। आजादी के बाद के इस आम चुनाव में दुर्ग जिला से एक भी शोशलिस्ट उम्मीदवार नहीं जीत सके किंतु हार जीत का अंतर बहुत कम था। रायपुर जिला में कांग्रेस से ठाकुर प्यारेलाल निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले प्रमुख नेता तथा रायपुर से ठाकुर प्यारेलाल सिंह धरवींवा से खूबचंद बघेल को कांग्रेस के विरुद्ध विजय श्री अवश्य मिली थी। फरवरी मार्च १९५२ में आम चुनाव हुआ था और अक्टूबर में कुथरेल का उपचुनाव संपन्न हुआ, जो बड़ा ही दिलचस्प था। मुकाबला था शोशलिस्ट पार्टी के तिलोचन साहू तथा कांग्रेस प्रत्याशी मोहनलाल बाकलीवाल के बीच। बाकलीवाल सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे फिर भी उन्हें यह उपचुनाव हारना पड़ा। इसके पीछे दो दाऊओं की राजनीति थी। कुर्मी समाज के दाऊ रामदयाल चन्द्राकर तथा साहू समाज के प्रेमसिंह चौधरी आमटी वाले दोनों मिलकर चन्द्राकर व साहू समाज को देशी परदेशी की बात उछालकर इतना बांध दिए कि लोग गांव गांव में मारवड़िया हमार जी के काल, ओला वोट नई देवन भई। यह गीत गाने लगे, जो जादू का काम किया। चुनाव हार जाने पर इसी मुद्दे पर बाकलीवाल जी ने चुनाव याचिका भी दायर की, किंतु जज ने स्पष्ट तौर पर कह दिया कि मारवड़िया कोई जाति नहीं है अत: इसे जातिवाद उछाला जाना नहीं माना जा सकता। इस प्रकार बाकलीवाल जी चुनाव याचिका भी हार गए। पुराने मध्यप्रदेश की विधानसभा में शोशलिस्ट पार्टी के मात्र दो ही विधायक चुनकर गए थे - दुर्ग जिला से तिलोचन साहू तथा भंडारा जिला के तुमसर क्षेत्र से नारायण राव कोरे मोरे। ये दोनों ही जाति के तेली थे। एक छत्तीसगढ़िया व दूसरा मराठा तेली।

१९५२ के पहले विधानसभा के स्थान पर धारासभा होती थी। सी.पी. बरार की धारा सभा के स्पीकर दुर्ग के दाऊ घनश्याम सिंह गुप्त रह चुके थे। वे राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के सदस्य थे तथा संविधान सभा के सदस्य भी। तब धारा सभा के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था। १९४६ से ५२ तक रविशंकर शुक्ल धारासभा के प्रधानमंत्री थे तथा डी.पी. मिश्रा गृहमंत्री थे। १९५२ के आम चुनाव में दुर्ग विधानसभा क्षेत्र से घनश्याम सिंह गुप्त निर्वाचित होकर गए थे। उन्हें दुबारा स्पीकर नहीं बनाए जाने पर नाराजगी व्यक्त करते हुए विधानसभा की सदस्यता से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। फलत: १९५३ में उपचुनाव हुआ। तब तक विश्वनाथ यादव तामस्कर जी प्रजा शोशलिस्ट पार्टी में आ चुके थे। वे चाहते थे कि रत्नाकर झा को टिकट दिया जाए लेकिन शोशलिस्ट ग्रुप के नेता दाऊ वासदेव चन्द्राकर के पक्ष में थे। अंततोगत्वा टिकट दाऊजी को ही मिली और वे झोपड़ी छाप के उम्मीदवार बन गए। मोहनलाल बाकलीवाल कांग्रेस प्रत्याशी थे। वे कुथरेल क्षेत्र से हारने के बाद दुर्ग से पुन: भाग्य आजमा रहे थे। चुनाव प्रचार में प्रतिद्वन्दिता के चलते रत्नाकर झा, तामस्कर आदि से दाऊजी को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया। ग्रामीण क्षेत्र से १९०० वोट से आगे रहे किंतु शहरी क्षेत्र में २६०० वोट से पिछड़ गए। इस प्रकार वे ७०० मतों से चुनाव हार गए। उस समय दुर्ग सर्किल व भिलाई सर्किल के गांव दुर्ग विधानसभा क्षेत्र में आते थे। गोढ़ी से नगपुरा तक देव बलौदा आैंधी भिलाई आदि गांव भी थे। दाऊजी के चुनाव प्रचार में डॉ. खूबचंद बघेल भी आए थे। बागड़ी व दांडेकर ने भी खूब प्रचार किया था। ठाकुर प्यारेलाल नहीं आ सके थे। आज जहां भिलाई इस्पात संयंत्र बना है उसके सभी गांव आमदी, बोरिया, कोसा, हिंगना, सोंठ, छावनी, खुर्सीपार, जामुल सभी दुर्ग क्षेत्र में थे। कुथरेल क्षेत्र में कुथरेल व गुंडरदेही सर्किल शामिल थे। विधानसभा परिसीमन में पटवारी हल्का व सर्किल को विशेष महत्व दिया गया था। शोशलिस्ट नेता कुथरेल से बाकलीवाल को हरा दिए थे पर दुर्ग से नहीं हरा सके। इसका मुख्य कारण तामस्कर व झा का निष्क्रिय होकर बैठ जाना तथा बाकलीवाल के यहां बड़ी संख्या में कार्यरत छत्तीसगढ़िया मजदूरों द्वारा दाऊजी का विरोध किया जाना ही था। दाऊजी को संतोष केवल इसी बात की थी कि शहर से हारे पर गंवई से तो जीत गए।

१९५३-५४ में जनपद सभा बालोद, दुर्ग बेमेतरा, राजनांदगांव, खैरागढ़ व कवर्धा का चुनाव हुआ। इसमें तीन जनपद सभा में शोशलिस्ट पार्टी का बहुमत आ गया। तब तक शोशलिस्ट पार्टी बदलकर प्रजा शोसलिस्ट पार्टी बन चुकी थी। साथ ही तास्कर जी इसमें शामिल हो गए थे। चुनाव चिन्ह भी बलदकर झाड़ से झोपड़ी हो गया था। दुर्ग जनपद सभा में दलबदल द्वारा बाद में बहुमत बनाया गया। इस प्रकार पहला दलबदल जनपद से शुरु हुआ था। दुर्ग जनपद में सोशलिस्ट सदस्यों की संख्या एक कम थी। दाऊ जी ने खिलावन सिंह बघेल मटंग वाले तथा दशरथ नामक हरिजन सदस्य से अपने निवास पर मंत्रणा की। यह तय हुआ कि यदि दोनों प्रजा शोसलिस्ट पार्टी में आ जाएंगे तो दाऊ ढालसिंह के स्थान पर खिलावन सिंह अध्यक्ष बना दिए जाएंगे। चार माह बाद यह योजना सफल हो गई। जनपद चुनाव में सबसे दिलचस्प चुनाव बालोद जनपद का था। विश्वनाथ यादव तामस्कर व केशवलाल गोमास्ता में भैंसा बैर था। तामस्कर जी ने दाऊ जी को बुलाकर एक जवाबदारी सौंपी। उन्हें एक जीप देकर बालोद जनपद के अंदरुनी गावों में प्रचार करने का काम सौंपा। उस समय बालोद के आसपास सघन जंगल था। तांदुला जलाशय बन चुका था। गोंदली बाद में बना। तब आदमाबाद के पास शेर निकल आते थे। इसीलिए दाऊजी को लोहे की मजबूत जाली वाली स्पेशल जीप उपलब्ध करायी गई थी। यदि शेर पंजा भी मारे तो भी कोई आंच नहीं आती थी। दाऊजी ने अपनी कुशल रणनीति के तहत अपने दो साथी बालोद में चुनाव प्रचार के लिए तैनात कर दिया जो शाम होते ही बाजार चौक में माईक लगाकर केशवलाल गोमास्ता के खिलाफ धुंआधार भाषण देते थे। वे धीरे धीरे बालोद में माहौल बनाने में सफल हो गए। ग्रामीण क्षेत्र की कमान दाऊ जी के हाथों में थी। जब वे स्पेशल जीप द्वारा वनमार्ग से चुनाव प्रचार में जाते तो चार पांच शेर एक साथ जीप पर आ चढ़ते थे। तब भी वे निर्भीक भाव से प्रचार में जुटे रहे। उसी बीच बड़ी चौकाने वाली घटना हुई। दाऊजी ने अपने ससुर चुन्नीलाल चन्द्राकर को निपानी क्षेत्र से खड़ा किया था। कांग्रेस से डोमेन्द्र के पिता खिलानंद भेड़िया प्रत्याशी बनाए गए थे। दोनों प्रत्याशियों के बीच महाप्रसादी था। खिलानंद जी चुपके से निपानी आ धमके और चुन्नीलाल जी को यह कहकर मना लिए कि वासुदेव के चक्कर में मत पड़ो। फलत: नामिनेशन भरकर चुन्नीलाल जी चुप बैठ गए। वहां से दाऊ जी की धर्मपत्नी बोधनी बाई ने खबर भेजा कि दाऊ जी (पिताजी) चुनाव में खड़े भर हो गए हैं दौरा नहीं कर रहे हैं। चुनाव संपन्न होने में मात्र पांच दिन शेष रह गए थे। हड़बड़ी में दाऊजी बालोद जनपद का प्रचार कार्य छोड़कर निपानी आए और पूछे तो जवाब मिला - तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझे जबरन खड़ा कर दिए हो। आनन फानन में दाऊजी बैलगाड़ी में छोटा लाऊड स्पीकर लगाए, गांव भरके किसानों की बैठक लिए और बोले - यहां दाऊ जी (चुन्नी लाल जी) नहीं बल्कि तुम सभी चुनाव लड़ रहे हो अत: सभी गांव में कब्जा करो। निपानी से दो तीन सियान अपने साथ रखकर वे स्वयं घूमने लगे। उनकी पत्नी अलग से घूमकर प्रचार कार्य में जुट गई। तब तक खिलानंद भेड़िया जी चार राऊंड मार चुके थे और लोग उन्हें आश्वासन दे चुके थे। तुम्हें नहीं देंगे तो किसे देंगे, क्यों बार बार आते हो। दाऊजी उन्हीं गांवों में गए जहां भेड़िया जी निश्चिंत थे। बालोद में गुमास्ता जी किसान संघ व स्टोर स्थापित किये थे। कृषि औजार नांगर, लोहा, अंसकुंड़ आदि वहां बिकते थे। यह स्टोर किसानों से चंदा इकट्ठा करके स्थापित किया गया था। बाद में पैसा खा पी डाले थे। इसी में एक नेता पुनारद राम साहू थे जो सब कुछ जानते थे। वे चुन्नीलाल जी का प्रचार करते हुए कहते अगर भ्रष्टाचारी को वोट देना है तो गुमास्ता के उम्मीदवारों को दो वरना सीधे सादे दाऊ चुन्नीलाल को दो। इस प्रचार से चार पांच दिनों में ही ऐस तब्दीली आई कि निपानी वाले दाऊजी ३७३ वोट से जीत गए। चुनाव परिणाम पर खिलानंद को विश्वास नहीं हुआ। वे सायकिल से बालोद आकर साहब से पूछे तभी उन्हें विश्वास हुआ। इस प्रकार उन्हें अतिविश्वास का फल मिल चुका था। उस क्षेत्र में ४६ प्रतिशत आदिवासी वोट के साथ साहू वोट अधिक थे फिर भी वासुदेव चन्द्राकर की चुनाव रणनीति का ही परिणाम था कि उनके ससुर घर में बैठे बैठे चुनाव जीत गए।

१९५४ में दुर्ग नगर पालिका परिषद का चुनाव संपन्न हुआ। इसमें तामस्कर व वाकलीवाल के बीच पैक्ट हुआ जिसके अंतर्गत कांग्रेस से बाकलीवाल अध्यक्ष तथा व वरिष्ठ व कनिष्ठ उपाध्यक्ष पी.एस.पी. से बनाए गए। इस पैक्ट से दाऊजी का सितारा चमका। पी.एस.पी. के सर्वाधिक प्रभावशाली व लोकप्रिय नेता होने के कारण उन्हें वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया। कस्तूरचंद पुरोहित कनिष्ठ उपाध्यक्ष बने। उक्त दोनों पद इसलिए मिल सका क्योंकि पालिका से बैलेंसिंग वोट पी.एस.पी. का था। नगर पालिका में वरिष्ठ उपाध्यक्ष के रुप में दाऊजी का प्रारंभिक कार्यकाल बिना किसी उल्लेखनीय घटना के व्यतीत हो रहा था। किंतु इसी बीच दाऊ जी तपेदिक के शिकार हो गए। कारण स्पष्ट था पूर्व में उनके द्वारा पार्टी कार्योंा में अत्यधिक श्रम, सायकिल से दूरदराज के इलाकों का भ्रमण, खानपान की अनियमितता, स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता आदि। बाद में उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए गोरखपुर तक जाना पड़ा। वहां प्राकृतिक चिकित्सालय में वे चार माह तक भरती रहे। यद्यपि उसके पूर्व उनके चचेरे भाई डॉ. जीवनलाल चन्द्राकर द्वारा सही इलाज उपलब्ध हो जाने से वे पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे। दाऊजी के बाबा जी (दादा) के पांच पुत्र थे। एक माँ से लालाराम केदारनाथ व रामदयाल के चार बेटे थे। डॉ. जीवनलाल चन्द्राकर उनके ज्येष्ठ पुत्र थे अर्थात वासुदेव के सबसे बड़े चचेरे भाई। जीवनलाल को उनके पिता जी उन्हें बम्बई में पढ़ाने सहमत नहीं थे। सो रामदयाल जी ने पूरी जिम्मेदारी अपने उपर ले ली। उन्होंने स्पष्ट कह दिया - जीवनलाल की पढ़ाई का पूरा खर्च मेरे हिस्से से काट लेना। रामदयाल के चार बेटे थे - महासिंह, रामसिंह, वासुदेव व गैंदसिंह। इसमें अभी दाऊ वासुदेव ही जीवित हैं। जागेश्वर दाऊ के दो पुत्र हुए - मंगलप्रसाद व विजय। टीकाराम दाऊ के चार लड़के थे इनमें एक का निधन हो गया। बचे तीन भाई - बल्दाऊ, हीरामन तथा बानी। दुर्ग का विजय लाज विजय के नाम पर तथा बानी लाज बानी के नाम पर हैं। चूंकि जीवनलाल की पढ़ाई का भार वासुदेव के पिताजी वहन किये थे अत: उन्होंने बिना कोई पैसा लिए इलाज करके दाऊजी को स्वस्थ कर दिया। पूर्ण स्वास्थ लाभ कर लेने के बाद भी प्राकृतिक चिकित्सा कराने की मंशा से वे गोरखपुर गए थे।

१९५७ के मार्च अप्रैल माह में दूसरा आम चुनाव होना था। इसमें तामस्कर जी दुर्ग क्षेत्र से चुनाव लड़ने के इच्छुक थे किंतु दाऊ जी की अनुपस्थिति में वे बड़े चिंकित थे। दुर्ग विधान सभा क्षेत्र का परिसीमन भी बदल गया था। अब दुर्ग के दक्षिण के सर्किल अर्जुदा तक इसमें शामिल किए गये थे। इधर तिलोचन साहू भी दुर्ग से लड़ना चाहते थे। उन्हें पाटन से चुनाव लड़ने की समझाईश दी गई, यह कहकर कि तामस्कर के रहते दुर्ग पर किसी का क्या अधिकार है ? इस पर नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी। अंततोगत्वा तामस्कर जी दुर्ग से खड़े तो हो गए पर वे ग्रामीण क्षेत्र से अनभिज्ञ थे। एक दो मुवक्किल भर से उनका परिचय था। अत: ग्रामीण इलाकों में प्रभावी चुनाव प्रचार हेतु उन्होंने दाऊजी को गोरखपुर से बुलाने का निश्चय किया। उक्त दाऊजी ५२ दिन के मठा कल्प के अंतर्गत दूसरा कल्प शुरु कर रहे थे। उन्हें आधा आधा घंटा में एक एक पाव तुरंत का जमा दही दिया जाता और वे प्रतिदिन पांच किलो तक दही पचा लेते। उन्हें मात्र दही का ही भोजन करना था। दूसरा कल्प सात दिन के ब्रेक के बाद शुरु हुआ था। लेकिन तामस्कर जी की खबर मिलते ही पूरा बे्रेक लग गया। उन्होंने तीर्थयात्रा करते हुए वापस आने की खबर तामस्कर जी को भेज दी। वे गोरखपुर से कबीर जन्मभूमि होते हुए अयोध्या पहुंचे। वहां से चित्रकूट वृन्दावन होते हुए दिल्ली चले गए। उस समय चन्दूाल जी पत्रकार थे। वे कनाटप्लेस के निरुला होटल के प्रथमतल के कोने वाले कमरे में रहते थे। चन्दूलाल जी विदेश गए हुए थे अत: उनके खाना बनाने वाले पंडित को परिचय दिए और वहीं रुक गए। दाऊ जी सपरिवार यात्रा पर थे। दोनों बेटे भूषण व लक्ष्मण भी साथ थे। लक्ष्मण बहुत छोटे थे उन्हें गोद में रखकर घुमाते थे। प्रतिदिन पांच रुपये में रिक्शा कर लेते व जहां तक रिक्शा जा सकता खूब घूमते। दिल्ली में घूमना फिरना इतना कर दिए कि पैसा खत्म हो गया, सो बाई की सोने की चूड़ी पंडित के साथ जाकर बेच दिए। वहां भूषण सायकिल के लिए जिद्द करने लगा सो वह भी खरीद दिए। तब दिल्ली की आबादी दस लाख रही होगी। अंग्रेजों के जमाने में बने भवनों तथा आजादी के बाद बने भवनों में स्पष्ट अंतर परिलक्षित होता था। कनाटप्लेस अंग्रेजों का बसाया हुआ था यह पहले कनाट सर्कस कहलाता था। दाऊ जी ने सपरिवार पार्लियामेंट भवन, राष्ट्रपति भवन और लाल किले की खूबसूरती का खूब आनंद लिया। सात आठ दिन दिल्ली में बिताकर नागपुर होते हुए खूब आनंद लिया। सात आठ दिन दिल्ली में बिताकर नागपुर होते हुए दुर्ग वापस आ गए। उन दिनों दिल्ली से दुर्ग सीधी रेल सेवा नहीं थी। नागपुर में ट्रेन बदलना पड़ता था। दुर्ग पहुंचते ही तामस्कर जी घर आकर दाऊजी के पिताजी से बोले - रामदयाल दाऊ। वासुदेव आपका ही लड़का नहीं है हमारा भी लड़का है। उस पर हमारा भी अधिकार है। मैं दुर्ग से चुनाव लड़ रहा हूं मुझे उसकी जरुरती हे। इस प्रकार चुनाव प्रचार में पुन: दाऊ जी ने अपने आपको झोंक दिया। वे मात्र केला खाकर व दूध पीकर तामस्कर जी का चुनाव प्रचार करते रहे। इस चुनाव में गिरधर लाल देवांगन खुरसुल वाले वकील कांग्रेस प्रत्याशी थे। उन्हें हराकर तामस्कर जी पी.एस.सी. से जीत गए। लोकसभा हेतु बाकलीवाल जी कांगे्रस प्रत्याशी थे वे भी जीत गए। १९५२ से १९५७ तक दुर्ग से किरोलीकर लोकसभा सदस्य थे। १९५७ के चुनाव के बाद बाकलीवाल जी नगरपालिका अध्यक्ष व सांसद दोनों पद सम्हालते रहे। इसी बीच उनके साथ दाऊजी का मतभेद दोनों पद सम्हालते रहे। इसी बीच उनके साथ दाऊजी का मतभेद पैदा हुआ। तब शहर के लोगों ने मध्यस्थता करते हुए कहा - आप तीनों याने बाकलीवाल, वासुदेव तथा कस्तूरचंद पुरोहित इस्तीफा दो। मध्यस्थता करने वालों में झा ग्रुप के गोविंदप्रसाद तिवारी पहलवान प्रमुख थे। चूंकि बाकलीवाल कानून कायदा जानते थे, उन्होंने दोनों उपाध्यक्षों का स्तीफा खुद स्वीकार कर लिया और अपना स्तीफा फाड़कर फेंक दिया जिसे कि कलेक्टर स्वीकार किए होते। पूरे दुर्ग शहर में तहलका मच गया। परिणाम स्वरुप १५ दिन बाद पुन: चुनाव हुआ जिसमें बाकलीवाल की ओर से केजूराम वर्मा दाऊ जी के विरुद्ध तथा धनराज देशलहरा पुरोहित के विरुद्ध खड़े किए गए जो एक एक वोट से हार गए। इस प्रकार फिर से दोनों उसी पद पर आ गए। इस घटना के बाद दोनों उपाध्यक्षों ने बाकलीवाल का जीना हराम करना शुरु किया। वे जैसे ही कोई आदेश पारित करके दिल्ली जाते, चूंकि कानूनन अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उनका कार्यभार वरिष्ठ उपाध्यक्ष पर आ जाता, उनका आदेश निरस्त कर दिया जाता। इसके लिए कोई न कोई बहाना अवश्य ढूंढ निकालते। धनराज देशहलरा द्वारा फोन किए जाने पर वे हड़बड़ाकर दिल्ली से वापस आते और पुन: दाऊजी द्वारा पारित आदेश निरस्त कर देते। तब तक नये आदेश का काफी काम हो चुका होता। दुर्ग का प्रथम डामरीकरण वाला रोड दाऊजी के कार्यकाल में ही बना। तब वे भिलाई इस्पात संयंत्र में ठेकेदारी शुरु कर दिए थे। भिलाई इस्पात संयंत्र निर्माण का श्रीगणेश होते ही आमदी की भूमि भी अधिग्रहीत कर ली गई थी। इसी बीच रामदयाल जी, राईस मिल बेच दिए। आमदी के जमीन जायदाद से प्राप्त् मुआवजा की रकम तथा राईस मिल बेचने से मिले पैसे से ठेकेदारी शुरु कर दिए। रामदयाल जी बड़े भावुक स्वभाव के थे तथा खुला व्यक्तित्व के धनी थे। १९५८ में ठेकेदारी में पार्टनरशिप डीड में परिवर्तन करके राजनीतिक दायित्व सम्हालते हुए भी मैनेजिंग डायरेक्टर के रुप में पैसे का लेन देन व बैंक खाता आदि का अधिकार वासुदेव को प्रदान किया गया। वे पूरा नियंत्रण अपने हाथों में लेकर बी.एस.पी. के ठेकेदारी में प्रवेश किए। एक तरफ राजनीतिक दावंपेंच की व्यस्तता तो दूसरी ओर ठेकेदारी का जटिल कार्य। फिर भी वे हार मानने वाले नहीं थे। कोई भी काम हाथ में लो, तो सफलता पूर्वक निर्वाह करो यही दाऊजी का मूलमंत्र था। आगे चलकर बाकलीवाल जी के प्रति अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। नगर पालिका में कुल २७ सदस्य थे। चूंकि गलती से दाऊजी व पुरोहित दोनों ने ही अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिया था, अत: वे नगरपालिका की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सके जो कि वरिष्ठ उपाध्यक्ष होने के कारण उनका अधिकार था। इसका लाभ उठाते हुए बाकलीवाल ने धनराज देशलहरा को अध्यक्ष बनवा दिया। बैठक में वाकलीवाल जी अपने पक्ष में बोले और चले गए। दाऊजी व साथीगण उनके विरुद्ध बोले। आखिर में मतदान हुआ। हाथ उठाकर मतदान किया गया। २७ में से अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में १६ मत व विरोध में मात्र ११ मत पड़े जिसे अध्यक्षता कर रहे धनराज देशलहरा उलटकर लिख रहे थे कि विरोध में १६ व पक्ष में ११ मत मिले हैं। दाऊजी ने खट से उनका हाथ पकड़ लिया और रजिस्टर छीन लिया। उन्होंने रजिस्टर उछाल दिया जो बिसरुराम यादव के हाथ में होते हुए क्रमश: सिकोलाभाठा के पार्षद नोहरसिंह धोबी, तितुरडीह के पार्षद फगुवा ठाकुर, तकियापारा के पार्षद मो. शफी, आपापुरा के पार्षद झुमुक लाल यादव (केदार यादव के पिता) के हाथों में उछलता रहा। वहां पुलिस भी बुला ली गई पर दाऊजी के साथियों ने डांट लगा दी कि हाल के अंदर हस्तक्षेप न करें, बाहर ही रहे। अतंतोगत्वा वाकलीवाल भी पस्त पड़ गए। समझौता किया जाना तय हुआ। दाऊ जी भी समझौता के लिए बाध्य हुए क्योंकि तब तक वाकलीवाल जी इंटुक के अध्यक्ष बन चुके थे वे बी.एस.पी. पर दबाव डालने की क्षमता रखते थे। साथ ही राजनीतिक आंच न आ पाए इसी गरज से दोनों गुट मिलकर विलीन हो गए। तय हुआ कि २७ सदस्य मिलकर काम करायेंगे।
इधर बी.एस.पी. की ठेकेदारी में उतरने के पश्चात जब भी टेंडर निकलता तो बड़े बड़े ठेकेदार जैसे - खरे तारकुंडे, मिश्रा जोगलेकर, बालकृष्ण गुप्त, बी.आर. जैन, शाह एंड कंपनी सभी को लोवेस्ट टेंडर भरकर दाऊ जी आश्चर्य में डाल देते। वे सभी सोचते कि इतने कम में वासुदेव काम कैसे करा लेते हैं। सेक्टर १ से सेक्टर १० तक क्वार्टर व डिस्पेंसरी आदि का निर्माण रामदयाल एंड कंपनी द्वारा कराया गया। दाऊ जी ५० प्रतिशत काम स्वयं कराते और ५० प्रतिशत काम दूसरों से करा लेते थे। वे गणित में छात्र जीवन से ही विलक्षण प्रतिभा रखते थे अत: उनका हिसाब किताब हमेशा चोखा रहता था। वे हर काम में पांच सात स्थानीय आदमी रखते। उन्हंे सीमेंट, स्टोर, रेत, लोहा, इंर्ट, पत्थर, गिट्टी का इंचार्ज बना देते। सभी शाम को रजिस्टर लेकर दाऊजी के पास अनिवार्य रुप से उपस्थित होते। दाऊजी भली भांति जानते थे कि १०० फीट की जोड़ाई में १२५० इंर्ट से अधिक इंर्ट नहीं लगना चाहिए १०० फीट कांक्रिटिंग में ९० फीट गिट्टी ४० फीट रेत चाहिए। सभी प्रकार के निर्माण में आवश्यक सामग्री का अनुपात उन्हें भली भांति मालूम था। सो गड़बड़ी की कोई आशंका नहीं होती थी। वे लकड़ी का काम अपने हाथ में नहीं रखते थे। चौंखट का रेट तय करके पेटी कांट्रेक्टर को दे देते साथ ही पास कराने का काम भी सौंप देते। बनारस से आया हुआ जगन्नाथ स्वयं लकड़ी खरीदकर लाता, चौखट पल्ला आदि बनाता तथा पास भी करा लेता। सेनेटरी सामग्री प्रदाय करने एस.एम. बालानी बम्बई से आए थे। वे चन्द्राकर परिवार के अभिन्न मित्र थे। वे सभी आवश्यक सामान बम्बई से रास्ते में ले आते थे। उनका सामान उच्च कोटि का होने के कारण अधिकारी खुश थे। पेंट तथा अन्य जरुरी सामान भी उन्हीं के माध्यम से मंगाया जाता था। जब भी दाऊ जी खरीद के लिए बम्बई जाते ए रोड नं. १ चर्चगेट में रुकते। बालानी का फ्लैट चौथे फ्लोर पर था, ठीक समुद्र के सामने। आगे मेरिन ड्राइव व चौपाटी पड़ता था। वहीं रुककर पेंटिंग, फिटिंग आदि का सामान ट्रक से लाते। पूरा सामान उधारी में लाते, पैसा बाद में भेज देते। इसी कुशल कलाकारी के कारण दाऊ जी ठेकेदारी में सफल रहे।

यहां यह बताना आवश्यक है कि १९५६ से नया मध्यप्रदेश राज्य बन चुका था। देश भर में भाषावार प्रांतों का पुनर्गठन किया गया था। इससे मराठीभाषी बरार नागपुर क्षेत्र महाराष्ट्र में शामिल कर लिया गया। छत्तीसगढ़ महाकौशल क्षेत्र को मालवा मध्यभारत विंध्यप्रदेश के साथ मिलाकर देश का सबसे बड़ा मध्यप्रदेश राज्य बना दिया गया था। इससे छत्तीसगढ़ क्षेत्र में बरार नागपुर क्षेत्र में धान की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। पुराने मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ के लोक भंडारा तक ले जाकर धान बेच लिया करते थे। पर अब यह संभव नहीं था। इससे यहां कि किसान आंदोलन पर उतारु हो गए। प्रतिबंध तोड़ने के लिए बहुत बड़ा बैलगाड़ी जुलूस निकाला गया जिसमें सैंकड़ों गाड़ियां तीन तीन चार चार बोरा धान भरकर शामिल हुई। इसमें किसानों का भारी सहयोग व समर्थन मिला। गांव वालों के सहयोग से रात में निर्धारित स्थान पर गाड़ियां एकत्र होती तथा बालोद डौंडी चौकी मोहला होते हुए महाराष्ट्र प्रवेश की अंजाम दिया जाता। तब दुर्ग जिला एकीकृत था और श्री आर.पी. मिश्रा यहां के कलेक्टर थे। वे गिरफ्तारी वारंट लेकर आंदोलन का सूत्रधार मानकर दाऊजी की खोजबीन कराते। बालोद से डौंडी लोहारा के लिए रातों रात बैलगाड़ियों को रवाना करके वापस दुर्ग आते ही दाऊ जी को भनक लग जाती कि सुबह गिरफ्तारी होगी। उन्हें बस से महाराष्ट्र के निर्धारित शहर तक की यात्रा करनी थी सो गिरफ्तारी दुर्ग या राजनांगांव बस स्टैंड में प्रस्तावित था। अत: दाऊ जी रात में ही आमटी वाले सुमेरसिंह चौधरी को बुलेट लेकर बुला लेते और उसी से रातों रात चौंकी पहुंच जाते। वहां से महाराष्ट्र की सीमा पर जंगली रास्ते में उन्हें छोड़ दिया जाता। तब तक वहां पर २००-२५० बैलगाढियां इकट्ठी हो चुकी होती। वहीं पर एक नाला शिवनाथ नदी में मिलता है वही नाला मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र का बार्डर था। रोज २००० से ३००० तक लोग डूमरपाली में इकट्ठा होते थे। सबकी व्यवस्था लाल श्याम शाह कराते थे। पाना बरस जमींदारी व अंबागढ़ चौकी से चावल दाल शामभाजी लाकर सबके भोजन की व्यवस्था की जाती थी। रात में लोगों के मनोरंजन के लिए नाचा पार्टी भी साथ ले जाते थे। अनेक दिनों की गिरफ्तारी के बाद आखरी दिन दाऊ जी के नेतृत्व में २०० सत्याग्रही गिरफ्तारी दिए। तब तक जेल में कोई जगह नहीं बची थी। उन्हें पहले राजनांदगांव लाया गया, वहां जेल लबालब भरा हुआ था। सो वहां से उन्हें साथियों सहित खैरागढ़ लाए पर वहां भी वही हाल। अंत में छुईखदान जेल में भी कोई स्थान उपलब्ध नहीं होने के कारण सभी को कवर्धा जेल में रखा गया। चूंकि सभी राजनैतिक कैदी थे अत: जेल का भोजन उन्हें नहीं दिया जाता था। उन्हें बाहर से भोजन लाकर खिलाया जाता था। आखिर भोपाल विधानसभा में मामला उठाया गया तब जाकर धान की आवाजाही से प्रतिबंध समाप्त् हो गया। तब रविशंकर शुक्ला का निधन हो चुका था। श्री कैलाश नाथ काटजू मुख्यमंत्री थे तथा ठाकुर प्यारेलाल सिंह प्रतिपक्ष के नेता थे। व्ही. वाय. तामस्कर उपनेता थे। डॉ. खूबचंद बघेल व बृजलाल वर्मा भी विधानसभा सदस्य थे। पी.एस.पी. के और भी अनेक सदस्य थे। विंध्यप्रदेश तो शोसलिस्ट पार्टी का गढ़ था वहां से बड़ी संख्या मं पी.एस.पी. विधायक जीतकर गए थे। मध्यभारत हिन्दूमहासभा का गढ़ था। छत्तीसगढ़ सहित महाकोशल क्षेत्र में कांग्रेस तथा पी.एस.पी. बराबरी पर थे। इसी अवधि में नया मध्यप्रदेश गठन के बाद सेठ गोविंददास के स्वर्गवास के पश्चात महंत लक्ष्मी नारायण दास म.प्र. कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष तथा मूलचंद देशलहरा महामंत्री बनाए गए। महंत जी कुछ दिनों के बाद स्वास्थ्य गत कारणों से अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिए तो मूलचंद देशलहरा को अध्यक्ष बना दिया गया। यह सन १९६० के आसपास की बात है। अब देशलहरा पूरे मंत्रीमंडल को अपनी पकड़ में रखने लगे। काटजू उनकी पकड़ से बाहर थे क्योंकि वे नेहरु जी के चचेरे भाई थे। १९५२ से ६२ तक काटजू जावरा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

१९६२ के आम चुनाव में तामस्कर जी की हार्दिक इच्छा थी कि वासुदेव चन्द्राकर दुर्ग से चुनाव लड़े तथा वे स्वयं लोकसभा के लिए भाग्य आजमाएं। अभी भी दोनों पी.एस.पी. में ही थे। तथा चुनाव चिन्ह झोपड़ी छाप ही था। नहीं कहते कहते तामस्कर के दबाव में उक्त प्रस्ताव दाऊ जी को स्वीकार करना ही पड़ा। इससे बी.एस.पी. की ठेकेदारी का कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। तामस्कर जी हार गए व कांग्रेस प्रत्याशी मोहनलाल बाकलीवाल लोकसभा के लिए दुबारा निर्वाचित हो गए। दाऊ जी के भाग्य में इस बार भी हार ही लिखी थी। उनकी हार का एकमात्र कारण था भिलाई का दुर्ग विधानसभा क्षेत्र में शामिल होना। ग्रामीण क्षेत्र से तिरगा व अर्जुदा को छोड़कर सभी मतदान केन्द्रों पर उन्होंने जीत दर्ज करायी थी। दुर्ग शहर में भी वे लीड किए थे। भिलाई में एकतरफा वोट कांग्रेस के पक्षा में पड़ा क्योंकि बाकलीवाल जी इंटुक के अध्यक्ष थे। दुर्ग नगर पालिका में वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर कार्य करते हुए दाऊजी ने अप्रत्याशित लोकप्रियता अर्जित कर ली थी। केवल भिलाई के कारण उन्हें हार स्वीकारनी पड़ी थी। ६२ के चुनाव में कैलाशनाथ काटजू भी हरा दिए गए थे। १९६३ में नरसिंह गढ़ के राजा भानुप्रताप सिंह ने काटजू के लिए अपनी नरसिंहगढ़ सीट छोड़ दी थी।

१९६३ में ही एक और घटना घटी। पं. द्वारका प्रसाद मिश्र सरदार पटेल के कट्टर समर्थक थे पर उनका नेहरु जी से मतभेद हो रहा था। अत: वे कांग्रेस से पृथक होकर सागर यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रार का कार्य सम्हाल रहे थे। उनकी प्रशासनिक दक्षता से नेहरु जी भलीभांति परिचित थे। तब इंदिरा गांधी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बन चुकी थी। इसी समय रायपुर जिले का कसडोल सीट खाली था। श्यामाचरण तथा विद्याचरण दोनों शुक्ल बन्धु देशलहरा गुट के विरोध में थे। डी.पी. मिश्रा भी देशलहरा के विरोधी थे। इंदिरा गांधी ने अपने पिताजी से पूछकर डी.पी. मिश्र को कसडोल से टिकिट दिला दी। इसी बीच डी.पी. मिश्र कसडोल से दुर्ग आए तथा धर्मपाल गुप्त व तामस्कर जी से मुलाकात किए। तब तक घनश्याम सिंह गुप्त् राजनीति से सन्यास ले चुके थे। डी.पी. मिश्र ने पी.एस.पी. नेताओं को कांग्रेस में शामिल होने बाध्य किया। धर्मपाल गुप्त तथा वासुदेव दोनों मान गए पर तामस्कर जी यह कहकर तैयार नहीं हुए कि पता नहीं पटरी बैठेगी या नहीं। दाऊ जी सीधे तामस्कर जी के घर जा पहुंचे और बोले - देखो, अब पी.एस.पी. में दम नहीं रह गया है। हमारे साथ चलो वर्ना अकेले ही रह जावोगे। सो वे भी मजबूर होकर कांग्रेस प्रवेश कर लिए। इसके बाद डी.पी. मिश्र ने दाऊ जी से कहा - कसडोल चुनाव हेतु पूरी टीम दुर्ग से लेकर चलो। मुझे रायपुर पर विश्वास नहीं है। दाऊ जी जीप में दस बारह साथी लेकर चुनाव प्रचार में जुट गए। गोविंदनारायण सिंह के पिता अवधेश प्रताप सिंह भी कसडोल क्षेत्र आये थे उन्हीं के साथ एक ही गाड़ी में तामस्कर जी कुछ साथियों सहित घूमते थे। दाऊ जी के चार्ज में महानदी शिवनाथ संगम क्षेत्र था। इस बेल्ट में साहू बाहुल्य गांव अधिक है। वहां निषाद समाज की भी अच्छी संख्या थी। हुआ ये कि किसी ने डी.पी. मिश्र के खिलाफ चुनाव लड़ रहे पी.एस.पी. उम्मीदवार रायपुर के वकील ब्राम्हण पारा निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कमल नारायण शर्मा के संबंध में यह मजाकिया बात उड़ा दी कि - कहां राजा भोज कहां भुजवा तेली। इसे पी.एस.पी. वालों ने अपने भाषणों में इतना उछाला कि पूरा साहू समाज कांग्रेस के विरोध में उठ खड़ा हुाअ। अब डी.पी. मिश्र को हारने का भय सताने लगा। उस समय दाऊ जी व धर्मपाल गुप्त लवन में थे। मिश्र श्री ने उन्हें तत्काल बुलाकर कहा - नदी किनारे का क्षेत्र बुरी तरह बिगड़ा है। उस किले को कौन तोड़ सकता है बतावें। इसमें १३-१४ मतदान केन्द्र थे। दाऊ जी ने तुरंत कह दिया - तामस्कर जी और हम दुर्ग के कार्यकर्ताओं को लेकर लाएंगे। अब बिना झंडा बिल्ला के उन्होंने सिरिया डीह में केंप लगा लिया। उनके साथ उरला वाले यादव भी थे। अब दाऊ जी मछली खाते थे सो यादव उन्हें मछली पकाकर खिलाते थे। सिरियाडीह बड़ा सा गांव है वहां दो नाई कार्यरत थे। दाऊ जी दोनों को दस दस रुपये देकर बांध लिए। दोनों नाई दाढ़ी बनाने बनाते लोगों से कहते - तुम्हारे बड़े बड़े लड़के हैं उन्हें नौकरी नहीं लगवाना है क्या ? जवाब लिता कि अब तक आवश्वासन भर मिलता आ रहा है। इस पर वे नौकरी की गारंटी देते हुए कहते - मेरे पहचान का भिलाई में बहुत बड़ा ठेकेदार है। वहां दो ढाई सौ को नौकरी मिल जाएगा। उस गांव में मात्र पांच मेट्रिक पास लड़के थे। यही तरीका सभी गांवों में अपनाया गया। सभी गांव के नाई कांग्रेस के प्रचार में जुट गए। पढ़े लिखे मेट्रिक पास लड़कों का लिस्ट बनना शुरु हो गया। पी.एस.पी. वालों को भनक लग गई कि दाल में कुछ काला अवश्य है। वे सोचने लगे जहां कांग्रेसी घुस नहीं पाते थे, वहां कैसे मजबूत पकड़ बना लिए। वे भी प्रचार करने लगे, यहां बहुत बड़ा ठेकेदार आया है वह शराब पिलाएगा, रुपया बांटेगा। उसके चक्कर में मत पड़ना, पर सब व्यर्थ। चार पांच दिन बाद तामस्कर जी आए। गांव के चौक में आरती लेकर उनका स्वागत किया गया। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। सोचने लगे कि वासुदेव ने कौन सा जादू कर दिया है। बाद में डी.पी. मिश्रा भी आए। सभी जगह उनकी भी आरती उतारी गई। वे इसका राज तामस्कर से पूछने लगे। पर दाऊ जी ने उन्हें बताने से मना कर दिया था। चुनाव जीतने के बाद रहस्य खुलने पर डी.पी. मिश्रा दाऊ जी के घर आए। तब दाऊ जी विजय लाज के उपर रहते थे। लाज के छत पर शामयाना लगाकर पूरे दुर्ग से बड़ी संख्या में नागरिक बुला लिए और मिश्रा जी का गर्मजोशी से स्वागत कराये। वे बड़े खुश होकर वापस गए।

कुछ समय बाद कांग्रेस में कामराज योजना लागू हुई। इसके अंतर्गत कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए कुछ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों से त्यागपर मांगा गया। काटजू के बाद म.प्र. के मुख्यमंत्री मंडलोई थे। उनके इस्तीफे के बाद नेता पद का चुनाव हुआ। तखतमल जैन बिदिशा से विधायक थे। चर्चा हुई कि निर्विरोध काटजू को मुख्यमंत्री बना दिया जाय। यह सलाह डी.पी. मिश्रा की ही थी। देशलहरा गुट अपनी ताकत अधिक समझकर उनकी बात नहीं माने। तब डी.पी. मिश्रा ने चुनाव होने पर स्वयं को उतरने की बात कह दी। फलत: तखतमल जैन व डी.पी. मिश्रा के बीच टक्कर हुआ। श्यामाचरण शुक्ला मिश्रा गुट में थे। दाऊ जी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ के सभी विधायकों को इकट्ठा किया गया और प्रात: दस जीप में एक साथ भोपाल के लिए प्रस्थान किए। म.प्र. की बीड़ी लाबी मिश्रा जी के साथ था, सो सुबह का नाश्ता गोंदिया में मनोहर लाल पटेल के घर, दोपहर का भोजन बालाघाट में रमणीकलाल पटेल के घर तथा रात्रि भोजन व विश्राम जबलपुर में परमानंद भाई पटेल के घर किए। वहां एक विधायक गोपाल ठाकुर नर्मदा नहाने के बहाने गायब हो गए। उदयराम जी देशलहरा गुट में थे जबकि भेड़िया जी दाऊजी के साथ थे। बिलासपुर वाले बिसाहूदास महंत, प्यारेलाल कंवर आदि मिश्रा जी के पक्ष में थे। अत: दाऊजी सभी को अपने संरक्षण में ले गये थे। अब गोपाल ठाकुर हाथ से निकल चुके थे अत: उनकी परवाह न करते हुए सुबह प्रस्थान किए व दोपहर तक सागर पहुंच गए। वहां अरविंद भाई पटेल के यहां भोजन करके शाम तक बेगमगंज होकर भोपाल आ गए। बेगममंगल में गोविंदनारायण सिंह व बसंतराव उईके दोनों मंत्री विधायकों के काफिले का स्वागत करने पहुंचे थे। गोविंदनारायण सिंह के बंगले में शाकाहारी विधायक रुके जबकि मांसाहारी तथा पीने वालों को बसंतराव उईके के यहां ठहराया गया। वहां दोनों प्रकार का इंतजाम था। दो दिन बाद मतदान संपन्न होना था। विधायक विश्राम गृह खंड दो के सभाकक्षा में मतदान कराया गया। अखिल भारतीय कांग्रेस से बीजू पटनायक पर्यवेक्षक के रुप में पधारे थे। इस बीच भेड़िया जी को पकड़कर गोमास्ता जी ले जा रहे थे। तत्काल धरमपाल गए और धक्का देकर गोमास्ता को हटाए व भेड़िया को वेंटीलेटर से भीतर बुलका दिए। उन्हें महंत, कवंर व भुवन भास्कर सिंह मिलकर झोंके। चुनाव परिणाम में सत्रह वोट से जीतकर मिश्रा जी मुख्यमंत्री बन गए। वे ६७ तक बने रहे। इस अवधि में मारवाड़ी गुट देशलहरा के साथ व गुजराती व अन्य मिश्रा जी के साथ रहे।

इधर सदस्यता अभियान में दुर्ग जिला में घमासान चल रहा था। जितना सदस्य उदयराम बनाते थे, दाऊजी समर्थकों की संख्या कम होने के कारण उतना सदस्य नहीं बना पाते थे। दाऊजी अपना सदस्यता बुक सीधे भोपाल में जमा कराते थे। जब संगठन चुनाव हुआ तो अपना गृहनगर होने के कारण मूलचंद देशलहरा भोपाल राव पवार को पर्यवेक्षक बना लिये थे। तब दाऊ जी के साथ केवल भेड़िया जी थे। कांग्रेस भवन में गड़बड़ी की आशंका से वासुदेव गुट द्वारा वहां ताला जड़ दिया गया था। साथ ही मतवारी रिसामा के सैंकड़ों लोगों ने भवन की घेराबंद भी कर रखी थी। धनराज देशलहरा रोज स्थिति का जायजा लेने स्कूटर से आते व गालीगलौच करके चले जाते। यह विष्णु दाऊ को बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने स्कूटर को ऐसी लात मारी कि धनराज स्कूटर सहित झुन्नीलाल वर्मा के मकान के पास नाली में गिर पड़े। विष्णु दाऊ पान चबाते हुए बोले - साले मारवाड़ी। लोटा लेकर आए हो, मार डालूंगा। उनका तेवर इतना आक्रामक था कि ढीमरपारा के लोगों द्वारा बीच बचाव किए जाने से देशलहरा बचकर भागे व दुबारा आना भूल गए। सदस्यता बुकों की गिनती हेतु ताला खोला गया। काऊंटिंग में गोविंद श्रीवास्तव व विष्णु दाऊ जुटे। वासुदेव गुट द्वारा भोपाल में जमा किए गए बुक्स पर्यवेक्षक पवार लेकर आये थे। देशलहरा गुट के बंडल पहले खुले। पचास पचास के बंडल बनाए गए थे। वासुदेव स्वयं पहले खुले। पचास पचास के बंडल बनाए गए थे। वासुदेव स्वयं एक एक बंडल निकालते श्रीवास्तव को देते जो विष्णु दाऊ को सरका देते। बंडल लेकर विष्णु दाऊ खिसक जाते। १९६४ के इस कांग्रेस संगठन चुनाव में उदयराम केदारनाथ झा चंद व देशलहरा एक साथ थे। वासुदेव के साथ विष्णु दाऊ, गोविंद प्रसाद श्रीवास्तव थे। श्री हरिप्रसाद शुक्ल जिला कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए। वे पहले देशलहरा गुट में थे। उन्हें वासुदेव गुट तोड़ने में सफल हो गया। धीरे धीरे क्रमश: एक एक करके लक्ष्मण प्रसाद वैद्य, देवीप्रसाद चौबे, दाऊ ढालसिंह भंगीराम के बाद उदयराम भी टूटे। ६७ तक देशलहरा गुट में केवल केशव गुमास्ता, मोहनलाल बाकलीवाल ही बचे रहे। इधर ६७ के आम चुनाव हेतु टिकिट वितरण हुआ। मिश्रा जी ने नांदगांव व दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से रानी पद्मावती देवी व व्ही. वाय. तामस्कर को कांग्रेस प्रत्याशी बना दिया। विधान सभा हेतु मारो से धर्मदास पात्रे, बेमेतरा से लक्ष्मण प्रसाद वैद्य, साजा से देवीप्रसाद चौबे, धमधा से टुमनलाल, डोंगरगढ़ से गणेशमल भंडारी, पाटन से उदयराम, गुंडरदेही से वासुदेव, दुर्ग से रत्नाकर झा, भिलाई से धर्मपाल गुप्त, बालोद से हीरालाल सोनबोईर, डौंडी लोहारा से झुमुकलाल भेड़िया, राजनांदगांव से किशोरीलाल शुक्ला, खैरागढ़ से बीरेन्द्र बहादुर सिंह, कवर्धा से हमीदुल्ला, खेरथा से हरिप्रसाद शुक्ला, चौकी से देवप्रसाद आर्य, डोंगरगांव से हीराराम वर्मा आदि कांग्रेस टिकिट पाने में सफल रहे। देशलहरा गुट की टिकिट कटने से वे जन कांग्रेस बनाकर चुनाव में कूद गए। तामस्कर के खिलाफ बाकलीवाल लड़े। बालोद से गुमास्ता, गुंडरदेही से जन कांग्रेस प्रत्याशी थे भूषणलाल सुकतेल। इस चुनाव में मारो से पात्रे जीते, बेमेतरा से गंगाधार तामस्कर निर्दलीय, साजा से मालूराम सिंघानिया रामराज्य परिषद, कवर्धा से गंगाप्रसाद उपाध्याय, रामराज्य परिषद, धमधा से टुकनलाल, भिलाई से धर्मपाल गुप्त, दुर्ग से रत्नाकर झा व पटन से केजूराम वर्मा निर्दलीय जीत गए। बालोद, डौंडीलोहारा, खेरथा राजनांदगांव, खैरागढ़ डोंगरगांव व गुंडरदेही से कांग्रेस प्रत्याशियों को विजयश्री मिली। इस प्रकार दाऊ वासुदेव जी प्रथम बार विधायक चुन लिए गए। डोंगरगढ़ से गणेशमल भंडारी व चौकी से देवप्रसाद आर्य भी निर्वाचित हो गए।

इस बीच विधायक बनने के बाद दाऊ जी का ठेकेदारी का कार्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। उन्होंने भिलाई के साथ ही माना में शरणार्थी शिविर बनाने का काम भी हाथ में ले रखा था। चन्द्रपुर जिला के भाण्डक में रक्षा मंत्रालय का बहुत बड़ा काम भी उन्हीं के पास था। ये सभी काम प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। हुआ ये कि चुनाव के बाद डी.पी. मिश्रा मुख्यमंत्री बने। उनका कारबार ठीक ही चल रहा था। उन्होंने दुर्ग जिला से दो मंत्री अपने मंत्रीमंडल में शामिल किए किशोरी लाल शुक्ला टुमनलाल तो दाऊ जी का माथा थोड़ा ठनका। किशोरीलाल शुक्ल को खाद्यमंत्री बना दिए फिर भी चुप रहे। फिर वे एक बार मिश्र जी से मिलने गए और अपने काम के बारे में निवेदन किया। उन्होंने कहा - एक विशेष अनुरोध है। अर्जुंदा में हाईस्कूल हेतु जन भागीदारी से एक बहुत बड़ा भवन बनाया गया है। वहां शिक्षकों को छ: छ: माह से वेतन नहीं मिल पा रहा है अत: मुझे एक हाई स्कूल दीजिए। धर्मपाल गुप्त कांग्रेस विधायक दल के सचेतक बनाए गए थे। श्यामाचरण जी सिंचाई मंत्री थे। उनसे दाऊ जी की अच्छी बनती थी। अत: उनसे भी सिफारिश कराये। मिश्रा जी आवश्वस्त किए कि बजट में प्रावधान रखेंगे तो अर्जुंदा को अवश्य स्थान देंगे। ६७ के मार्च में बजट सत्र प्रारंभ हुआ तो उसमें मात्र दो हाई स्कूल का प्रावधान रखा गया। एक जबलपुर जिला के मंझोली निर्वाचन क्षेत्र से जहां से मिश्रा जी स्वयं जीतकर आये थे। व दूसरा नांदगांव में किशोरी लाल शुक्ला के क्षेत्र में। इस प्रकार दाऊ जी लटक गए। वे धर्मपाल गुप्त से बोले - मंत्रीमंडल में झा जैसे वरिष्ठ विधायक की उपेक्षा हुई है। ये (मिश्राजी) बड़े अकड़बाज हैं। ठीक नहीं लग रहा है यह व्यक्ति। धर्मपाल जी बोले - जितना बनता है श्यामा बोलते हैं। श्यामाचरण जी जो करते उसे दोनों मानते थे। बजट सत्र के बाद अर्जुंदा वाले दाऊजी को तंगाने लगे। इस पर दाऊजी बोले - क्या करुं। अर्जुंदा में मिश्राजी नहीं खोले। मुझे भी बड़ी निराशा व पीड़ा हुई है। फिर उनसे रहा नहीं गया। वे किरोलीकर वकील (पूर्व सांसद के पुत्र) के साथ पुन: भोपाल गए। तब श्यामला हिल्स में मुख्यमंत्री निवास था। मिश्राजी गार्डन में बात करते थे। स्लिप भेजने पर बुला लिए। दाऊ जी ने उनसे निवेदन किया - अपने क्षेत्र में गया था। बहुत दुखीपन से मुझे फिर वापस भेजे हैं। किसी भी तरह से अर्जुंदा हाईस्कूल को टेक ओव्हर करने बोलिए। बहुत मुसीबत में हूं अत: फिर आया हूं। मिश्रा जी बोले - ठीक है, इस साल नहीं तो अगले साल देख लेंगे। इस पर दाऊ जी ने कहा - आपको देखकर ही हम कांग्रेस में आए हैं अन्यथा पी.एस.पी. में ही ठीक थे। हमने गुप्त तथा झा में से एक को मंत्री बना दो बोले तो भी नही बनाए। एक स्कूल के लिए बोले वह भी नहीं खोले। किशोरीलाल जैसे नये आदमी को टिकिट देकर मंत्री बना दिए। इस पर मिश्रा जी भड़क गए। बोले - किसके कहने से आए हो। किसी ने सिखाया है तभी तो बोल रहे हो। वासुदेव ने उत्तर दिया - मैं सिखायी बात नहीं बोल रहा हूं। वरिष्ठता क्रम की बात कर रहा हूं। कल कांग्रेस में आए उन्हें मंत्री बना दिए। एक हाईस्कूल भी नहीं दे रहे हैं। अन्याय के बारे में हम बोल डालते हैं। वे फिर भड़क उठे व बोले - शायद राजमाता ने भेजा है। दाऊ जी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि कैसे अजीब बोल रहे हैं। राजमाता का भेजा हुआ मानते हैं। वे दोनों धर्मपाल के यहां ठहरे हुए थे स्वयं का कमरा होते हुए भी। मिश्रा जी किशोरीलाल के बारे में टिप्पणी बर्दाश्त नहीं कर सके। वहां से अंत में यह कर कि बार बार आप राजमाता का नाम ले रहे हैं ऐसा लगता है राजमाता को खोजना ही पड़ेगा। आपका व्यवहार हमें नागवार गुजर रहा है तथा उन्हें नमस्कार कर निकल आए। दाऊजी का दिमाग इतना खराव हुआ कि वे बिना किसी को बताए सीधे लालघाटी चले गए। तांगावाला पूछते पूछते वहां ले गया। तब राजमाता भी विधायक थी। सरदार आंग्रे भी वहीं थे। राजमाता मकान के भीतर थी। सरदार आंग्रे बाहर के कक्ष में थे। नाम लिखकर स्लिप भेजते ही आंग्रे बोले - अभी राजमाता नहीं मिलेंगी। दाऊजी बोले - फिर भी देख लीजिए। वे स्लिप लेकर अंदर गये राजमाता ने बिठाने कहा था उन्हें। अत: आंग्रे कमरा खोलकर बिठाये चाय पिलाये। चाय पीते तक राजमाता आ गयीं, चर्चा शुरु हुई।

दाऊजी - राजमाता जी, देश के कुछ प्रांतों में एस.व्ही.डी. (संयुक्त विधायक दल) की लहर चल रही है। यहां भी क्यों न प्रयास किया जाय।

राजमाता - चन्द्राकर जी। बहुत गैप है। ३५-३६ का गैप कैसे पाटेंगे?

दाऊजी - ऐसी कोई बात नहीं है। प्रयास करे तो सब हो सकता है। समाजवादी, जनसंघ, कम्युनिस्ट, निर्दलीय आपके प्रभाव वाले सबको जोड़िए। अंतर के लायक विधायक जोड़ दीजिए। कम से कम इस जल्लाद से तो मुक्ति मिलेगी जिसने आपको भी अपमानित किया है।

राजमाता - मैं कुछ की मानसिकता समझ रही हूं। जिनने ६३ में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने एड़ी चोटी का जोर लगाया था उन्हें ही ड्राप कर दिए हैं। बृजलाल वर्मा ५२ से अब तक विधायक हैं उन्हें मंत्री नहीं बनाए।

दाऊजी - मेरे जिले से मैं तीन चार विधायक ला दूंगा।

राजमाता - फिर शुभ कार्य में देरी नहीं होगी। आज ही रात्रिभोज देती हूं। गोविंदनारायण सिंह, धर्मपाल वगैरह आ जाएंगे तो उनसे चर्चा कर लेंगे।

राजमाता ने उसी दिन इंपीरियल सैब्रे होटल में डिनर दिया। सभी आमंत्रित विधायक आठ बजे डिनर में आ गये। चर्चा शुरु हुई। धर्मपाल को दाऊजी बहुत मुश्किल से खींचकर लाये थे। गोविंद नारायण सिंह बोले - चन्द्राकर जी का सुझाव अच्छा है। टटोलना पड़ेगा। आप भी प्रयास में लगे रहिए। बृजलाल वर्मा ने कहा कुछ साधन उपलब्ध कराइये जिससे उनके दिमाग को डायवर्ट करके खींचे। यह १५ दिन के भीतर ही किया जाए। बरसात के पहले अभियान को अंजाम दे देंगे। हुआ यूं कि दुर्ग जिला से केजूराम वर्मा निर्दलीय, गंगाधर तामस्कर, मालूराम, झा, वासुदेव, धर्मपाल गुप्त कुल ६ विधायक का कोटा पूरा हो गया। इसके बाद गो.ना. सिंह के प्रभाव के लोगों को एक से डेढ़ दर्जन तक जोड़े। संपर्क राजमाता से बना हुआ था टेलीफोन द्वारा। जब पूरा हो गया ऐसा समझे तब सबको भोपाल में जोड़ने की तैयारी चली। जी.एन. सिंह का छत्तीसगढ़ महाकोशल विन्ध्य प्रदेश के विधायकों से अच्छा संबंध था सो वांछित संख्या पूरी हो गई। बृजलाल वर्मा उतना नहीं कर पाये। इसी बीच राजमाता सभी दलों के नेताओं से निरंतर चर्चा करती रही। उन्होंने कम्युनिस्ट, सं. समाजवाद पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, निर्दलीय व जनसंघ मिलाकर संयुक्त बैठक आयोजित करके, उसमें वरिष्ठ नेताओं को बुलाकर चुपके से रणनीति को अंजाम दिया। सबकी सहमति मिली। शर्त यह थी कि कांग्रेस से जितने आएंगे मंत्री बनने का पहला अवसर उन्हें मिलेगा। अन्य पार्टी के लोग उतनी चाह न रखें। सभी हामी भर दिए। दाऊ जी धर्मपाल व केजूराम एक साथ शामिल हो गए। गंगाधर तामस्कर व सिंघानिया- राजमाता के कोटे से शामिल हुए। रायपुर से बृजलाल वर्मा व शारदाचरण तिवारी केवल दो थे। बिलासपुर से भी रामेश्वर सूची पत्र (शर्मा) के साथ एक दो विधायक जुड़ गए। सर्वाधिक संख्या में बालाघाट जिले से ८ से ६ विधायक दल बदल किए। दूसरा स्थान दुर्ग का था प्रतिशत के हिसाब से। यहां राजा वीरेन्द्र बहादुर भी दलबदल करने वालों में से एक थे। सारंगढ़ के नरेशचन्द्र भी आ गए। कुल ३६ से अधिक हो गए। तब राजमाता दो मकान ले रखी थी। वे सबसे बोली - जो भी खाना पीना है यहां सब कुछ मिलेगा। यही रहो। बाहर जाने पर गुप्त्चर की नजर पड़ेगी। मैं ग्वालियर से बस मंगा रही हूं। उस समय ग्वालियर स्टेट की महारानी होने के कारण राजमाता को पूरी सुविधा थी। इधर हुआ यूं कि बिसाहू दास महंत कपड़ा साथ नहीं ला पाये थे। उनके साथ एक गाड़ी लेकर शारदा चरण तिवारी व दाऊजी गए। शारदाचरण तिवारी भोपाल टाकीज में उतर गए व बोले - चन्द्राकर जी आप महंत जी के साथ जाओ, वापस होने पर साथ चलेंगे। वहां बात कुछ फैल गई थी। जैसे ही महंत जी का ताला खुला, श्यामाचरण महंत को देखते ही पकड़ लिए व उनके रुम के भीतर जाकर फाटक बंद कर दिए। उनका सामान लेकर दाऊ जी वापस लौटे व शारदाचरण तिवारी को लेके साथ निकले। वे पक्का जान गए थे कि महंत का आना संभव नहीं है। तब भी २६ बचे थे। गो.ना. सिंह बोले, ठीक है, बाद में देखेंगे। राजमाता ने ग्वालियर से आयी दो गाड़ियों में विधायकों को बिठाया तथा उनके स्पेशल फोर्स की आठ दस गाड़ी आगे व आठ दस पीछे चलीं। राजमाता ने बहुत खड़ा खतरा मोल ले रखा था। बस्तर के राजा प्रवीरचंद भंजदेव की निर्मम हत्या के बाद सभी डी.पी. मिश्रा से भयभीत रहते थे। भोपाल से प्रस्थान कर राजगढ़ व्यावरा से निकलने पर ग्वालियर स्टेट शुरु हो गया। अत: चिंता की कोई बात नहीं रही। ग्वालियर में खबर कर दी गई थी कि दलबदल करने वालों का सबेरे फूलों की पंखुड़ियों से स्वागत होना चाहिए। सर्किट हाऊस में शौच आदि से निवृत होकर, नहा धोकर कपड़ा बदल लिए फिर खुली जीप गाड़ियों में ४-४, ५-५ विधायक सवार हुए। सबसे पहली गाड़ी में जी.एन. सिंह, बृजलाल वर्मा व धर्मपाल गुप्त थे बाद में गोपालशरण सिंह व अन्य क्रमश: बैठे। भारी उत्साह के साथ ग्वालियर में स्वागत किया गया। बाद में सभी को जयविलास पैलेस में ठहराया गया। राजमहल का तीन चौथाई हिस्सा सिंधिया परिवार के कब्जे में था एक चौथाई म्यूजियम के लिए दे दिए थे। उसी साल माधवराम सिंधिया की शादी हुई थी। वे सपत्नीक विधायकों के साथ खाना खाने बैठते थे। उनके डायनिंग टेबल पर ४०-५० आदमी एक साथ खाने बैठ सकते थे। डायनिंग सेट रेलगाड़ी के रुप में बना था, यंत्रीकृत था, उसमें से अपने पसंद का खाना लेते जाते। उसमें शाकाहारी मांसाहारी हर प्रकार के भोजन का सेट था। भोजन के उपरांत उसी बस में बैठकर सभी विधायक दिल्ली रवाना हुए। तब इंदिरा गांधी उतना प्रभाव नहीं जमा पायी थी। मोरारजी देसाई व यशवंतराव चौहान की अधिक चलती थी। वे दोनों भी मिश्रा से खफा थे व मजा चखाने का मौका देख रहे थे। संगठन का कार्य उन्हीं के हाथ में था। वे राजमाता को सहयोग दिए व वहां से आदेश कराने में सफल हो गए कि सारे विधायकों को विधानसभा अध्यक्ष के निवास में रखा जायगा और फिर विधान सभा में शक्ति परीक्षण होगा। यह काम दिल्ली में तीन-चार दिन में पूरा हुआ। इस अवधि में पूरा सिंधिया परिवार स्वागत सत्कार में उमड़ पड़ा था। सभी को पहाड़गंज के होटल के ए.सी. कमरों में ठहराये थे तथा दरियागंज के मोती महल में खाना खिलाते थे। खूब आवभगत किया गया।

दिल्ली से पुन: वापस ग्वालियर जयविलास पैलेस पहुंचे। इसी बीच रतलाम जिले के एक कांग्रेसी आदिवासी विधायक प्रभुदयाल गहलोत फिर हट गए। उन्हें बताया गया कि उनका भाई मिलने आया है पिताजी की तबियत बहुत खराब है, ऐसा ठगकर उसे उड़ा ले गए। इसके बाद राजमाता बहुत सख्त हो गई। किसी को किसी से नहीं मिलने दिया गया। विधायकों की भोपाल वापसी की व्यवस्था भी बड़ी सतर्कता पूर्वक की गई। राजमाता ने अपना फोर्स पुन: व्यावरा के पास तैनात कर दिया ताकि भोपाल की सीमा पर प्रवेश करते समय कोई हस्तक्षेप राज्यशासन द्वारा न किया जा सके। विधायकों से भरी दोनों बसें रातों रात भोपाल पहुंची। व्यावरा के पास कांग्रेस नेता डी.पी. मिश्रा के ईशारे पर गौतम शर्मा दल बल सहित पहुंचे थे। उनसे मुठभेड़ हो ही गया। राजमाता के फोर्स ने उन्हें साथियों सहित खदेड़ दिया। भोपाल में विधानसभाध्यक्ष काशीप्रसाद पांडे (सिहोरा वाले) के निवास के उपर दरी बिछाकर रखा गया था, सभी विधायक वहीं सोये। दूसरे दिन साढ़े दस बजे विधानसभा शुरु हुई। अविश्वास प्रस्ताव पहले से ही पेश किया जा चुका था, दिल्ली रवानगी के पूर्व। दिल्ली यात्रा में पूरे पंद्रहदिन लगे। इस बीच सत्र बुलाया जा चुका था। सत्र आहूत हुआ। दल के नेता राजमाता होंगी पर मुख्यमंत्री गोविंदनारायण सिंह बनेंगे। साथ ही मंत्रिमंडल राजमाता गठित करेंगी। यह सह पहले ही तय कर लिया गया था। अविश्वास प्रस्ताव पर डी.पी. मिश्रा बात करना प्रारंभ किए। उन्होंने कांग्रेस छोड़ने वालों को कर्ण की संज्ञा देते हुए कटाक्ष किया। इधर से गो.ना. सिंह वीरेन्द्रकुमार सखलेचा आदि ने मिश्रा जी को जवाब देते हुए कहा - धृतराष्ट्र तो अंधा था, आप तो आँखवाला धृतराष्ट्र होते हुए भी सौतेला व्यवहार किये। जो आपको संकट में साथ दिए थे उन्हें ही दरकिनार कर दिए। वाद विवाद के बाद मतदान हुआ जिसमें अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया। डी.पी. मिश्रा ने कांग्रेस विधयक दल के नेता पद हेतु कुंजीलाल दुबे जबलपुर वाले का नाम प्रस्तावित किया। इस प्रकार कांग्रेस विपक्ष में बैठी। मंत्री मंडल में मांग के अनुरुप दुर्ग जिला से धर्मपाल गुप्त को शिक्षा मंत्री बनाया गया। जनसंघ के वीरेन्द्र कुमार सकलेचा बिजली मंत्री बनाए गए। छत्तीसगढ़ के वर्तमान वित्तमंत्री रामचंद्र सिंहदेव योजना आयोग के उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए थे। मंत्री मंडल से सभी संतुष्ट थे। दाऊ जी का धर्मपाल से गहरा संबंध था। तब दुर्ग जिला की राजनीति दोनों के ईद गिर्द घूती थी।

संयुक्त विधायक दल सरकार बनाने में अपनी सक्रिय भूमिका के कारण दाऊ जी एक माह तक चंद्रपुर नहीं जा सके। वहां बारह तेरह लाख का बिल व चेक पड़ा हुआ था। वे संविद सरकार बनने की खुशी में कोई जश्न नहीं मना सके। वे गो.ना सिंह, धर्मपाल गुप्त व बृजलाल वर्मा से विदा लेकर रातों रात नागपुर आये। भाण्डक जाकर देखा कि आफिस का काम अस्त व्यस्त था। नगद राशि समाप्त् हो चुकी थी। चेक उठाने वाला कोई नही था। दाऊ जी की सूचना पर वहां कुछ तैयारी कर ली गई थी। भिलाई का कार्य तो समाप्त् हो गया था अत: माण्डक का कार्य बढ़ाया गया था। सभी आफिस से चेक कलेक्ट किए। स्टेट बैंक चांदा में जमाकर रुपया उठाये। माण्डक से चांदा आधा घंटे का रास्ता था। धड़ाधड़ चुकारा दिए। दूसरे दिन से काम शुरु हो गया। दाऊ जी अपने घर वालों से बोले - अब मैं काम नहीं कर सकता। एक इंजीनियर भी पार्टनरशिप में शामिल था। अत: काम चल रहा था। इधर माना (रायपुर), दुर्ग रेलवे स्टेशन तथा चरोदा में स्टाफ क्वार्टर बनाने का काम भी चल रहा था। निगरानी के अभाव में एक आदमी के नहीं रहने से पड़े विपरीत प्रभाव की आग से दाऊ जी झुलस से गए थे। दुर्ग स्टेशन तथा भाण्डक के काम में घाटा होता दिख रहा था। स्टेशन बिल्डिंग की नींव हेतु पत्थर लिमोरा के पास के खदान से लाकर छेनी से छिलकर लगवाना मंहगा सिद्ध हो रहा था। प्रस्ताव में इंर्ट की नींव डालने का था। दाऊ जी की अनुपस्थिति में पत्थर लगवाया जा रहा था। रेट सामान्य पत्थर का दे रहे थे। अधिकारियों की मनमानी से वे क्षुब्ध हुए। वे इंर्ट व कालमबीम द्वारा बनाने पर अड़ गए फलत: काम रुक गया। भाण्डक में भी घाटा के कारण काम समेटने का निर्णय लिये। वहां एक के बाद दूसरा काम भी ले लिए थे। उसे रो धोके पूरा किए। दस बारह लाख का घाटा हुआ। रेलवे के काम में भी एक लाख तक की भरपाई करनी पड़ी सो अलग। ठेकेदारी बंद करने की गरज से सब सामान बेच दिए व किसानी करने की ठान लिए। ठेकेदारी की संपत्ति व साज सामान बेच भांज कर ब्याज तो अदा नहीं कर सके पर मूलधन साहूकारों को लौटाते चले। तब उनके साहूकार थे धर्मपाल गुप्त, राधाकिशन, हरनारायण, शंकरलाल आदि। इनसे डेढ़ दो प्रतिशत ब्याज पर पैसा उठाते थे। धर्मपाल ने ब्याज छोड़ दिया। राधाकिशन व हरनारायण भी मान गए। सभी का मूल ले देके नक्खी किए व कारोबर बंद कर दिए। खेती किसानी व राजनीति करने का ठान लिए।

इसी बीच मिश्रा जी के खिलाफ चुनाव याचिका चल रही थी। इसमें कसडोल क्षेत्र से उनके निर्वाचन को चुनौती दी गई थी। मिश्रा जी के चुनाव अभिकर्ता थे श्यामाचरण शर्मा को कहीं से ६३००/- का बिल मिल गया जिसमें श्यामाचरण शुक्ला के हस्ताक्षर भी थे। शक की सुई श्यामाचरण पर ही घूमने लगी थी क्योंकि छत्तीसगढ़ की सिंचाई योजनाओं पर पचमढ़ी मंे उनकी मिश्राजी से झड़प हो चुकी थी। मिश्राजी ने उन्हें दो टूक जवाब दे दिया था - मुख्यमंत्री मैं हूं। मेरे हिसाब से चलो। जब तुम सी.एम. बनोगे तो अपनी चलाना। इसी व्यवहार से श्यामाचरण क्षुब्ध हुए। असंतुष्ट तो पहले से ही थे। अंततोगत्वा संविद सरकार एक डेड़ साल ही चल सकी और फिर १९७० में श्यामाचरण शुक्ला को सी.एम. बनने का चांस मिल ही गया। हुआ ये कि राजमाता बृजलाल वर्मा व धर्मपाल को तोड़ने की कोशिश कर रही थी जिससे गो. ना. सिंह व राजमाता के बीच की दूरियां बढ़ी। संविद शासन काल में छोटी छोटी बातों का बतंगड़ बन जाता था। एक बार गो.ना. सिंह बिजली मंत्री सकलेचा की फाइल में अंग्रेजी के एज इट इज (आी, ळीं ळी) के बदले हिन्दी में जैसी की तैसी के बदले ऐसी की तैसी लिख दिए। फिर क्या था बवाल मच गया। किसी भी तरह मामला शांत हो गया था पर मतभेद तो बढ़ता गया। किंतु छिटपुट विवादों के बजाए मुख्य रुप से टाटपट्टी कांड से संविद सरकार के टूटने की स्थिति निर्मित हुई। दाऊ जी ने श्यामाचरण जी को पहले ही लिखकर दे दिया था कि मिेंश्रा जी के व्यवहार से क्षुब्ध होकर कांग्रेस छोड़ रहा हूं, आप नेता बनेंगे तो वापस आ जाऊंगा। कांग्रेस विधायक दल के नेता का चयन नहीं हुआ था। डी.पी. मिश्रा के प्रत्याशी कुंजीलाल दुबे व श्यामाचरण शुक्ला के बीच सीधी टक्कर में श्यामाचरण जीत गए। कांग्रेस शासन की वापसी पर गठित मंत्रिमंडल में १९७० में दुर्ग जिला से झुमुकलाल भेड़िया व हरिप्रसाद शुक्ला दोनों मंत्री बने। इसी के साथ दाऊ जी कांग्रेस मे ंवापस आ गए। धर्मपाल व बृजलाल भारतीय जनता पार्टी में चले गए। कांग्रेस में घर वापसी के बाद दाऊ जी की दुर्ग के लिए घर वापसी हुई। उसके बाद श्यामाचरण जी का रायपुर आने का कार्यक्रम बना। सभी जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। वे नागपुर से मेल द्वारा आये। डोंगरगढ़ नांदगांव दुर्ग रायपुर सभी शहरों में खबर भेज दी गई थी। श्यामाचरण ने स्वयं दुर्ग के एस.पी. को खबर भेज दिया था कि - वासुदेव को दुर्ग प्लेटफार्म में अवश्य रखना। तदनुसार दुर्ग स्टेशन की भारी भरकम भीड़ में दाऊ जी एक कोने में दुबके हुए थे। श्यामाचरण ने उन्हें बुलाकर अपने साथ वातानूकुलित प्रथम श्रेणी डिब्बे में बिठा लिया। उदयराम व दुर्ग के अन्य नेतागण सन्न रह गए। रायपुर में श्यामा ने उन्हें अपने साथ टोस्ट के साथ चाय पिलाया। दाऊ जी दुर्ग जिले में श्यामा के सबसे प्रिय बन गए। वे सबसे पहले दाऊ जी की बात सुनते व मानते। अकसर उन्हें अपने बगल में बिठाकर खुद चिकनपीस निकाल कर खिलाते। तब दाऊ जी भली भांति जानते थे कि बी.एस.पी. के पुराने प्रशासनिक भवन के कपूर कंेटिन में अच्छा खाना बनता है। अत: वे वहीं से श्यामा के लिए चिकन बनवाकर मंगाते थे। दुर्ग में वे दाऊजी के यहां ही खाना खाते थे। अत: दोनों एक दूसरे का चाव अच्छी तरह जानते थे। दुर्ग से रायपुर तक की रेल यात्रा में श्यामा स्वयं चाय टोस्ट व चिवड़ा निकाले फिर चाय शक्कर व दूध मिलाकर स्वयं चाय बनाए व दोनों बड़े चाव से पीते हुए रायपुर पहुंचे। दाऊजी ने इसी बीच उन्हें पचमढ़ी वाली बात याद दिलाते हुए कहा - अब आप मुख्यमंत्री बन गए हैं। तो छत्तीसगढ़ की सिंचाई योजना पूरी कराएं। दाऊजी को मालूम था कि श्यामाचरण जी नक्शा तैयार करके रखे थे। रायपुर स्टेशन में भीड़ इतनी अधिक थी। कि श्यामाचरण को पुलिस ने अपनी सुरक्षा में ले लिया। उनके पास किसी को फटकने तक नहीं दिया। अत: भीड़ हटने पर दाऊजी दूसरी गाड़ी से दुर्ग वापस आ गए। इधर धर्मपाल के भाजपा में चले जाने के कारण दोनों में संबंध विच्छेद सा हो गया। १९७० में ही व्ही. वाय तामस्कर का स्वर्गवास हो गया अत: उसी वर्ष उपचुनाव हुआ। डी.पी. मिश्रा के विरुद्ध दायर चुनाव याचिका का परिणाम भी आ चुका था। वे छ: साल के लिए चुनाव लड़ने के अपात्र घोषित कर दिए गए थे, फिर भी बैठे बैठे राजनीति चला रहे थे। होशंगाबाद के नीतिराज सिंह केन्द्रीय मंत्री थे। उनके भाई मारुतिराज सिंह म.प्र. के मुख्य सचिव थे। उनके निवास में ठहरकर मिश्रा जी संगठन का कार्य देखते थे। इंदिरा जी तब भी मजबूत नहीं बन पायी थी। कांग्रेस का एक विभाजन हो चुका था। निजलिंगप्पा कांग्रेस व जगजीवनराम कांग्रेस। बाबू जगजीवनराम इंदिरा कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष बने थे। दुर्ग लोकसभा उपचुनाव हेतु उदयराम वगैरह यह तर्क देना शुरु किए कि तामस्कर जी के निधन के बाद जनसहानुभूति उनके पुत्र के साथ है। इस प्रकार वे वामन तामस्कर को ही कांग्रेस टिकिट देने की वकालत करने लगे। केजूराम वर्मा व दाऊ जी दृढ़ता पूर्वक अड़े रहे कि लोकसभा के लिए चन्दूलाल को ही प्रत्याशी बनाया जाय। वैसे इंदिरा जी तय कर चुकी थी तथा आदेश भी दे चुकी थी कि चन्दूलाल जी चुनाव लड़े। साथ ही श्यामाचरण जी को आदेश हो चुका था कि वे उन्हें चुनाव जितवायें। चन्दूलाल जी उप चुनाव जीते। एक साल बाद १९७१ में आम चुनाव हुआ। वे पुन: विजयी हुए। लोगों ने उन्हें बहुत जल्दी स्वीकार कर लिया था। बाकलीवाल के जन कांग्रेस में चले जाने के बाद इंटुक में हेमंत देशमुख थे। चन्दूलाल जी के अध्यक्ष बनने पर रवि आर्या आए।
लोकसभा चुनाव के बाद गुंडरदेही के पास कचांदुर ग्राम में जिला टूर्नामेंट हो रहा था। बंगला देश बनने के बाद इंदिरा गांधी शक्तिशाली बन चुकी थी। श्यामाचरण जी क्रीड़ा प्रतियोगिता के समापन समारोह के मुख्य अतिथि थे। उन्होंने इसी अवसर पर कहा - चन्दूलाल जी, देखिए गंगरेल बांध के लिए पैसा दिलाइए। चन्दूलाल जी ने इंदिरा जी से बोलने की जवाबदारी ले ली। शर्त थी पूरा पानी भिलाई में आएगा। पैसा स्वीकृत हुआ। बांध तीन साल में बन गया। गेट बना तो ७० प्रतिशत रायपुर को व मात्र ३० प्रतिशत भिलाई को मिल पाया। बांध का नाम रखा गया रविशंकर जलाशय। १९७२ में डी.पी. मिश्रा ने करामात दिखायी जिसकी खबर सबसे पहले दाऊ जी को लगी, चन्दूलाल से बात की। उन्होंने पूछा - कहां से सुने हो ? दाऊ जी ने बताया, डॉ. टुमनलाल चन्दूलाल के यहां आए थे, यह रहे थे, आज रात मे देखना, मध्यप्रदेश का भविष्य कैसे बदलता है। १९७२ के विधानसभा चुनाव के पूर्व नेतृत्व परिवर्तन हो गया। श्यामाचरण जी विश्वास नहीं कर रहे थे। प्रकाशचंद सेठी मुख्यमंत्री बन गए। श्यामाचरण को त्यापत्र देना ही पड़ा। १९७२ की टिकिट सेठी जी के नेतृत्व में बंटी। चन्दूलाल जी कैसे भी करके गुंडरदेही की टिकिट बोधनीबाई के नाम से करा लिए। भोपाल राव पवार व किशोरी लाल शुक्ला दाऊ जी से नाराज चल रहे थे। पवार जी घनाराम साहू को फूल बेटा मानते थे। वे शिक्षा राज्यमंत्री थे व कलंगपुर हाई स्कूल को पहले टेक ओवर करना चाहते थे। दाऊ जी ने इसका यह कहकर विरोध किया कि पहले भाठागांव को लो जो कि आदिवासी चला रहे हैं। बाद में चन्दूलाल जी ने मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस कमेटी से चर्चा करके बोधनी बाई के नाम की टिकिट वासुदेव के नाम करा लिए। इस प्रकार दलबदलू होकर दाऊ जी टिकिट पाने में सफल रहे। पर चुनाव में खूब भीतरघात हुआ। धमतरी के करीब के गांव सियनमरा, सतमरा, अरमरी आदि मंे स्थिति खराब हुई। साथ ही नांदगांव से किशोरी लाल शुक्ला दाऊ जी को हटाने जी प्राण देकर भिड़े थे। श्यामाचरण द्वारा गुंडरदेही क्षेत्र में तीन दिन तक प्रचार किए जाने के बावजूद दाऊजी २४० मतों से मात खा गये। इसी चुनाव में मोतीलाल वोरा दुर्ग से, फूलचंद बाफना भिलाई से, देवी प्रसाद चौबे साजा से, लक्ष्मण प्रसाद वैद्य बेमेतरा से, हीरालाल सोन बोरई बालोद से व झुमुकलाल भेड़िया डौंडी लोहारा से जीते थे।

जब धर्मपाल गुप्त शिक्षा मंत्री थे तभी उन्होंने उदयराम जी को केन्द्रीय सहकारी बैंक से मानसेवी सचिव पद से हटाकर दाऊ जी को मनोनीत कर दिया था। इसी के साथ को-ओपरेटिव्ह क्षेत्र में उनका प्रथम प्रवेश हुआ था। तब रत्नाकर झा बैंक के अध्यक्ष थे। १९७२ के बाद दाऊ जी विधायक नहीं रहे अत: उन्हें दूसरा लाईन पकड़ना था अत: मंडी चुनाव लड़कर कृषि उपज मंडी समिति दुर्ग के अध्यक्ष बन गए। जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक का भी चुनाव हुआ जिसमें वर्चस्व स्थापित करने अपनी टीम बनाए। इसमें प्यारेलाल बेलचंदन अध्यक्ष, हरिहर प्रसाद शर्मा मानसेवी सचिव तथा दाऊ जी स्वयं उपाध्यक्ष बने। अब कुछ कठिन दौर की चर्चा भी जरुरी है। दाऊ जी के प्रयास से हरिहर शर्मा मार्केटिंग सोसाइटी के अध्यक्ष तो बना दिए गए पर संचालन दाऊ जी ही करते थे। अब उनके पास कृषि उपज मंडी समिति, केन्द्रीय सहकारी बैंक व मार्केटिंग सोसाइटी का कार्य था। इसी बीच ७२ में जब सेठी जी मुख्यमंत्री बने व किशोरीलाल शुक्ला को लोकनिर्माण, सहकारिता, खाद्य व राजस्व ये चार प्रमुख विभाग के मंत्री बनाए तो वे पहला काम दुर्ग जिला का विभाजन कर पृथक राजनांदगांव जिला बनाने में कामयाब हो गए। दाऊ जी व उनके साथी पृथक जिला कांग्रेस कमेटी की मांग करने लगे। उस समय एकीकृत दुर्ग जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष इंदरचंद
जैन, उपाध्यक्ष उदयराम तथा केदारनाथ झा चंद्र व स्वयं दाऊ जी महासचिव थे। इसी अवधि में मोतीलाल वोरा राज्यपरिवहन निगम के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त होकर राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त् किए। सीताराम कारज अध्यक्ष थे। किंतु पूरा काम वोरा जी ही देखते थे। इसी तरह इंदरचंद जैन जिला कांग्रेस कमेटी को बहुत कम समय दे पाते थे। पूरा काम उदयराम ही देखते थे। उनका रहना खाना सोना सब कांगे्रेस भवन में ही हो रहा था। वे पार्टी में अपनी ही चलाते थे। इधर केन्द्रीय सहकारी बैंक में कृष्णलाल कपूर व रिखीराम वर्मा नाम के दो कर्मचारी थे। ये दोनों मात्र विरोध करते थे।

मोतीलाल वोरा, उदयराम व किशोरीलाल शुक्ला की प्रेरणा से उटपटांग मांग रखते व पर्चा बांटते थे। आम जलसा के बाद सब कर्मचारी नीचे उतरे उस समय के बैंक सेके्रटरी किरोलीकर से दाऊ जी ने पूछा - ये दोनों कर्मचारी अनुशासनहीनता के दायरे मंे आते हैं या नहीं ? किरोलीकर सेवा नियम मंगवाकर पढ़े। कोई भी कर्मचारी बैंक की साख पर तनिक भी आंच पहुंचाएगा। उसे तत्काल बर्खास्त करने का अधिकार संचालक मंडल को है। दाऊ जी ने उसे रेखांकित किया और रजिस्टर मंगाया। उस समय प्यारेलाल बेलचंदन, हरिहर शर्मा व कुछ डायरेक्टर भी उपस्थित थे। दाऊ जी दोनों कर्मचारियों को बर्खास्त करने का प्रस्ताव लाये व पारित करा दिए। जो उदयराम, वोराजी व किशोरीलाल शुक्ला के लिए आग में घी का काम सिद्ध हुआ। उदयराम ने तत्काल भोपाल खबर भेजकर वोराजी को अवगत कराया। राज्य परिवहन निगम में उपाध्यक्ष बनने के बाद उनका दखल दुर्ग की राजनीति में अप्रत्याशित रुप से बढ़ गया था। सो उन्होंने बहुत से यूनियन को साथ लेकर मोटर कामगार संघ, रिक्शा टांगा यूनियन आदि को भी झोंककर बैंक में हड़ताल करा दिया। इसी बीच बहुत से कर्मचारी झोला जाकर बेलचंदन को धमकी भी दिए कि आप दुर्ग आकर देखिए, कैसे अध्यक्षी करते हैं, देखेंगे। जिनकी सलाह से यह कदम उठाये हो उसका परिणाम भोगना पड़ेगा। बेलचंदन बहुत डरपोक व्यक्ति होने के कारण दुर्ग आना बंद कर दिए। रोज ३-४ बजे के आसपास हरिहर गुरुजी बैंक आते और फिर मार्केटिंग सोसाइटी भी जाते। देर से सोना देर से उठना, नहाने धोने व अखबार पढ़ने में एक बजा देना फिर दोपहर में सोना आदि उनके दिनचर्या के अभिन्न अंग थे। अत: दाऊजी अकेले कर्मचारियों के आक्रोश का सामना कर रहे थे। तब अपेक्स बैंक से चापेकर नाम के महाप्रबंधक आये थे तथा किरोलिकर प्रबंधक थे। दोनों ने ही भारी सहयोग किया। दाऊजी ने हड़ताल तुड़वाने भिन्न-भिन्न युति निकाला। उस समय समिति सेवक के जुनियर-सिनियर दो स्तर थे। जुनियर का बेसिक ९०/- व सीनियर का २१०/- था। दाऊजी ने चापेकर व किरोलीकर दोनों से कहा, दोनों एक ही काम करते हैं दोनों को एक करके समान वेतन कर दिया जाय। दाऊजी रत्नाकर झा के अध्यक्षीय काल में ८०-९० युवकों को समिति सेवक नियुक्त कराये थे वे सभी जूनियर समिति सेवक थे। उन्हें भेद समाप्त् करके काम पर बुलाया गया जिसका तत्काल सकारात्मक प्रभाव हुआ। नम्ूराम साहू को सुपर वाइजर से चीप सुपर वाइजर बनवा दिए। बैंक के चपरासियों को भी तोड़ने में सफलता मिल गई। जो कि अक्सर बैंक के कार्यो में विघ्नबाधा डाला करते थे। उसी समय भोपाल से कोआपरेटिव सोसाइटी के रजिस्ट्रार तिवारी जी दुर्ग आए थे। उन्होंने दाऊ जी को सर्किट हाऊस बुलाकर डांट लगाना शुरु किया। उन्होंने कहा - आप बैंक में हड़ताल करा दिए हो। दाऊ जी बोले - मैं क्यों हड़ताल कराऊंगा। ये तो कर्मचारी नेता लोगों की करामात हे। तिवारी जी - आप कर्मचारियों को टर्मिनेट करेंगे, तो वह हड़ताल कैसे नहीं करेंगे। दाऊजी - मैं अपने घर से तो सेवा नियम नहीं बनाया हूं। आप ही के यहां से आया है। पढ़ लीजिए और फाड़ दीजिए। इस पर तिवारी जी अनाप शनाप बोलने लगे। तब दाऊ जी ने कहा - आप पब्लिक सर्वेंाट हैं मैं जनप्रतिनिधि हूं मुझे डांट रहे हैं। आप से बात नहीं करुंगा तो क्या कर लेंगे। फिर वे सेवा नियम पढ़े तो ठंडे पड़ गए। उन्होंने किशोरीलाल शुक्ला को रिपोर्ट भेजा जो सेठी तक पहुंचा। सेठी शुक्ला दोनों ने दुर्ग के कलेक्टर कौल से फोन करके हड़ताल तुड़वाने बोले। इस पर कौल साहब ने स्पष्ट तौर पर कहा - मुझे राजनीति में क्यों घसीट रहे हैं। मेरा ट्रांसफर करा दीजिए। हड़ताल का २८ वां दिन था। अब हड़ताल पर केवल चार लोग बच रहे थे। कपूर, वर्मा, सोनी तथा एक अन्य। बाकी सभी काम पर लौट गए थे। चारों हड़ताली दरवाजे पर सोये रहते थे। दाऊजी दीवाल फांदकर अंदर चले गए तो चारों आश्चर्य मे पड़ गए। २८ दिन में भी उनके दबाव का असर नहीं पड़ा था। अतंतोगत्वा नौकरी गई समझकर चारों कलेक्टर कौल के पास गए व उनका पैर पकड़ लिए और बोले आप कहे तो चन्द्राकर जी मान सकते हैं। कौल बोले - सुबह आओ तो मैं देखता हूं। सुबह उन्होंने दो डिप्टी कलेक्टर दाऊ जी के यहां भेजा। उनके साथ दाऊ जी कलेक्टर बंगला गए। उन्होंने चारों हड़तालियों को चपरासी के बैठने के कमरे में बैठे देखा। कलेक्टर ने दाऊ जी को सहलाते हुए पूछा - क्षमा का स्पष्ट अर्थ क्या लगाना चाहिए। दाऊ जी बोले - कोई आदमी गलती का एहसास करके दुबारा न करने का संकल्प लेकर प्रायश्चित करता है, यही क्षमा का अर्थ है। कौल साहब बोले मैं भी ऐसा ही समझता हूं। फिर चपरासी के द्वारा दोनों को अंदर बुलवाये तो दोनों (वर्मा व कपूर) दाऊ जी के ही एक एक पैर पकड़ लिए। तब कौल बोले - ठीक है क्षमा कर देते हैं। उसी दिन दाऊ जी ने संचालकों की बैठक बुलाई। दोनों की सर्विस पर ब्रेक न लगाते हुए हड़ताल के दिनों का लीव विदाऊट पे स्वीकृत करते हुए यथावत रखने का प्रस्ताव पारित कर टर्मिनेशन रद्द करा दिए। यह एक ऐसा ऐतिहासिक कदम था जिसमें मुख्यमंत्री तक संलग्न हो गए थे।

इसी प्रकार एक और साहसिक कार्य दाऊ जी ने किशोरीलाल शुक्ला के कार्यकाल में कर दिखाया था। किशोरीलाल शुक्ला अपने कार्यकाल में अनिवार्य लेव्ही लगवा दिए थे। तब दुर्ग में मिस परमार डिप्टी कलेक्टर खाद्य अधिकारी थी। किसानों को लेव्ही देने में कोई आपत्ति नहीं थी। किसानों का अनाज अधिग्रहण कर लिया जाता था जिसका कोई हिसाब नहीं करते थे। इससे पूरा छत्तीसगढ़ थर्रा गया था। आक्रोशित किसानों ने विराट जुलूस निकालकर किशोरीलाल का पुतला जलाया था। जुलूस का नेतृत्व लाल श्यामशाह ने किया था। एक लाख लोग शामिल हुए थे। आव्हान करते ही हजारों किसान गाड़ा गाड़ी में रोटी पीठा लेकर आते व पुलगांव नाका के पास गाड़ी बैल ठहराकर जुलूस में शामिल हुए, शहर घूमकर कचहरी में ज्ञापन दिए व पुतला जलाए। इसके ५-७ दिन बाद किशोरीलाल शुक्ला रायपुर प्रवास पर आए और कह दिए - यहां के लोग केकड़ा खाके जी सकते हें। इस बयान का समाचार पत्रों में छपना था कि लोग आगबबूला हो गए। वहां से दुर्ग आए। कांग्रेस भवन में वे जैसे ही भाषण शुरु किये लोगों ने कहा - हमारे प्रश्न का उत्तर पहले मंत्री जी से चाहते हैं। हम अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं, लेव्ही व कीमत का विरोध नहीं कर रहे हैं। किस नियम के अंतर्गत अधिग्रहण कर रहे हैं ? इसके बाद छत्तीसगढ़ियों को केकड़ा खाके जी सकते है कहने वाले किशोरीलाल शुक्ल कहकर उनके उपर टमाटर फेंकना शुरु कर दिए। पुलिस को भीतर नहीं आने दिए और उन्हें एक कमरे में बंदकर दिए तथा दो घंटे बिठा दिए। इस हालत में किशोरीलाल शुक्ल डबडबा गए बोले - बुलाओं वासुदेव को। जो हो गया सो हो गया, आज मुझे जाने दो, सीधा मुझे यहां से निकल जाने दो। इस पर दाऊजी दरवाजा खुलवाये, उन्हें पीछे पीछे निकाले, और पुलिस को ले जाने कह दिए। साथ ही लोगों को मना कर दिए।

केन्द्रीय सहकारी बैंक दुर्ग की घटना से दाऊ जी इतने बदनाम हो गए थे कि उनके नाम से सेठी जी चिढ़ते थे। एक बार सेठ जी उज्जैन से इंदौर जा रहे थे। इसी मार्ग पर सहकारी बैंक दुर्ग के डायरेक्टर लोग जीप द्वारा भ्रमण पर जा रहे थे। सोनकच्छ के पास सेठी जी की गाड़ी को आगे निकलना था, सो उनके ड्रायवर ने बैंक की गाड़ी को लाइट देकर किनारे लगाने का संकेत दिया। पर बैंक का ड्रायवर संकेत को नजरअंदाज कर चलाये जा रहा था। सेठी जी का ड्रायवर किसी भी तरह आगे करके बैंक की गाड़ी को रोका। सेठी जी डंडा रखे थे। वे दुर्ग से आये हैं सुनकर झल्ला गए। उन्हें गाड़ी सहित सोनकच्छ थाने में बंद करने का हुक्म फरमा गए। उन्हें थाने में बंद करके गाड़ी से उतरने भी नहीं देते थे। सभी परेशान थे। उसी समय बेलचंदन जी भोपाल गए हुए थे। उन्हें पता चला तो सीधे वोराजी के पास गए। वोरा जी ने सेठी से बात की - ये बेलचंदन जी के आदमी हैं उतने खतरनाक नहीं है। खतरनाक तो वासुदेव के लोग होते हैं। तभी उन्हें छोड़ा गया।

जिला कांग्रेसी कमेटी के गठन का विवाद ७३ से लेकर २५ मई ७५ तक चला। तब देवकांत बऊआ अखिल भारतीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इस बीच ५ पर्यवेक्षक बदले गए। जब इंदिरा जी १५ दिनों के लिए विदेश यात्रा पर थी तब २५ मई ७५ को पृथक दुर्ग जिला कांग्रेस कमेटी के गठन के साथ विवाद का पटाक्षेप हुआ। इसी दिन राजनांदगांव दुर्ग जिला के लिए दो अलग अलग जिला कांग्रेस अध्यक्ष बने। पृथक जिला कांग्रेस विवाद उठने पर पहले पर्यवेक्षक द्वारका प्रसाद यादव श्रमिक नेता जबलपुर बनाये गये थे। द्वितीय पर्यवेक्षक राजस्थान के राजघराने की रानी रत्नाकुमारी चूड़ावत, तृतीय पर्यवेक्षक दिल्ली के सुपर मार्केट के अध्यक्ष हरबंश सिंह चावला, चौथे व अंतिम पर्यवेक्षक विश्वनाथ प्रताप सिंह के बड़े भाई फतेहपुर सीकरी के सांसद संतबक्श सिंह नियुक्त किए गए थे। उन्हीं की देखरेख में चुनाव संपन्न हुआ। हुआ ये कि चंदूलाल जी व विद्याचरण शुक्ला दोनों देवकांत बरुआ से मिलकर चुनाव का आदेश कराने में सफल हो गए। पी.सी. सेठी व नरसिम्हाराव जो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव थे, इंदिरा जी का नाम लेकर धवन से फोन कराते व चुनाव रुकवा देते जबकि इंदिरा जी को दुर्ग की घटना से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन उनका बहाना करके ६ माह का समय यूं ही निकाल दिए। अंत में हरिहर शर्मा व दाऊ जी ऐसा संकल्प लेकर दिल्ली गए कि या तो आदेश लायेंगे या फिर हरिद्वार तरफ जाकर विरक्त जीवन बिताएंगे। सेठी जी जब चुनाव टलवाने में कामयाब नहीं हुए तो वे दुर्ग जिला के नेता झुमुकलाल भेड़िया (जो मंत्री थे) को समझाने की कोशिश किए व साथ देने को कहे। लेकिन भेड़िया जी सहित जिले के सारे नेता एकजुट हो चुके थे। अत: उन्होंने दो टुक जवाब दे दिया - इस मामले में मैं क्या कर सकता हूं ? मंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा। सेठी जी बोले - वासुदेव चन्द्राकर को छोड़कर किसी को भी अध्यक्ष बनवा दो। यह सब किशोरीलाल शुक्ला द्वारा कराया जा रहा था। सभी जिला कांग्रेस प्रतिनिधि अड़ गए कि अध्यक्ष वासुदेव को ही बनाएंगे। दाऊ जी दो साल से अनवरत प्रयास कर रहे थे। उनके द्वारा दिल्ली लाइटनिंगकाल किए जाने का बिल चालीस हजार रुपये आया था। इस मेहनत से सभी वाकिफ थे। सभी कार्यकर्ता सोचते थे - दाऊ जी को नहीं बनाएं जो क्या मिला इतना लड़ाई झगड़ा करके। बहुत से युवक इतने उत्तेजित थे कि एक बार जब इंदरचंद जैन नांदगांव से भिलाई आ रहे थे तो उन्हेे शिवनाथ पुल में रोककर कार से उतारकर पांच छै लड़के उनका हाथ पावं पकड़कर झुलाते और कहते, यदि दुर्ग जिला कांग्रेस कमेटी नहीं बनाओंगे तो नदी में फेंक देंगे। यह सब केवल उन्हें चमकाने के लिए किए थे। उस दिन से उन्होंने दुर्ग आने का रास्ता ही बदल दिया था, वे धमतरी होकर दुर्ग आते थे। इसी अवधि में देवीप्रसाद जी चौबे को केंसर हो गया था। वे दाऊ जी के सच्चे शुभ चिंतक थे। चुनाव के ठीक एक दिन पूर्व उन्हें बम्बई ले जाया गया। प्लेटफार्म में अनेक लोगों के साथ दाऊ जी भी छोड़ने आए थे। चौबे जी कुमार धरदीवान को पास में बुलाकर बोले - देखो, कुमारधर, मेरे जीने मरने का कोई ठिकाना नहीं है। पर एक बात बता रहा हूं। तुम्हें उचका कर दाऊके खिलाफ खड़ा कर देंगे तो खड़े मत होना। इतना ही वचन मुझे दे दो। इसी घटना से चौबे जी के प्रति दाऊजी की आस्था द्विगुणित हुई। दाऊजी कुमारी देवी चौबे को भाभी जैसे मानते थे। उनके विछोह के बाद दाऊजी उनके घर के मुखिया जैसे बन गए थे। अनेक नेताओं के नहीं चाहते हुए भी चुनाव हो गया। किशोरीलाल शुक्ला,वोरा व उदयराम के ईशारे पर कुमार धर दीवान को भी उम्मीदवार बना दिया गया। दाऊ जी को इकहत्तर मत मिले व कुमारधर को मात्र तेईस। चुनाव के दो दिन बाद एक पूरा बस लेकर दाऊ जी भोपाल गए सेठी जी से मिले व आशीर्वाद मांगे। तब वर्तमान मुख्यमंत्री निवास सर्किट हाऊस था और इसके बगल में आज के सुभाष यादव वाले बंगले में सेठी जी रहते थे। दाऊ जी अपने साथियों सहित होशंगाबाद में नर्मदा स्नान करके १२ बजे तक भोपाल पहुंच गए थे व सेठी जी से शाम ३ बजे मिले थे। सेठी जी ने कहा - ठीक है, राजनीति में चलता रहता है, अब काम करो। दूसरे दिन पुन: भोपाल से वापस लौटे पुन: नर्मदा स्नान किए, बैतुल में दोपहर का भोजन किए रात नौ बजे तक नागपुर पहुंच गए। वहां चायनाश्ता गन्ना रस आदि लिए व रातों रात दुर्ग पहुंच गए। तब से अब तक के दुर्ग जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हैं। बाद में सेठी जी को मुख्यमंत्री पद रास नहीं आया। इंदिरा गांधी के पास जाकर इस्तीफा देकर केन्द्रीय मंत्री बन गए। एक बार फिर से श्यामाचरण जी को मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त् हुआ। इसी दरम्यान आपातकाल की घोषणा हुई जो ७५ से ७७ तक लगभग डेढ़ वर्ष रहा। इस अवधि में अपने अधिकारों के कारण ब्यूरोक्रेट्स हावी थे। अनुशासन देखने के काबिल था। इंदिरा जी के परिवार कल्याण कार्यक्रम को नियोजन के रुप में लोगों की इच्छा के विपरीत चलाए जाने से भारी नाराजगी आई। यही १९७७ के चुनाव में कांग्रेस की हार का प्रमुख कारण बना। लोग अफवाह भी फैलाए। जैसे कि १५ साल के लड़कों का भी परिवार नियोजन कर दिया गया है आदि आदि। लोग कौंवा कान ले गया की बात पर मानो विश्वास करके कांग्रेस के विरुद्ध मतदान किए। १९७७ में ही प्रयाग में कुंभ मेला लगा था। दाऊ जी परिवार सहित वहां गए थे। तब कामता के बड़े भाई ठाकुरराम चंदखुरी वाले जीवित थे। वे ही कार वगैरह ढूंढकर लाते तथा पूरी व्‍यवस्था करते थे। साथ ही राजनीतिक समाचार भी प्राप्त् करके सुनाते थे। कुंभ मेले में ही उन्हें पता चला कि लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई है दाऊ जी को बड़ी हड़बड़ी हो गई। वे बसंत पंचमी तक नहीं रुक सके। पूर्णिमा स्नान करके ही वापसी की टिकिट कटा लिए। ७७ के आम चुनाव में कसे नीरक्षीर विवेकी जनता ने सत्ता बदल कर रख दी यह सभी जानते हैं। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी हार गई। दाऊ जी द्वारा अथक प्रयास करने के बाद भी चन्दूलाल जी हार गए। उन्हें बड़ी निराशा हुई। कांग्रेस को मजा चखाने का लोग ठान लिए थे। जयप्रकाश के समग्र क्रांति का जादू सा प्रभाव हुआ था। पांच झंडा पांच दल मिलकर ऐसा लामबंद हुए कि चुनाव भी जीत कर सरकार बना लिए पर आपसी खींचतान में चला नहीं सके। फलत: १९८० में फिर चुनाव हो गया। १९७७ के जनता लहर में मोरारजी देसाई प्रधान मंत्री बने थे। तब इंदिरा जी को परेशान करने की कोशिश भी की गई थी जिसे उन्होंने बड़ी शालीनता से झेला था। यही कारण था कि वे चिकमंगलूर की खाली सीट से निर्वाचित होकर लोकसभा में आ गई थी। उसके बाद भी उनके साथ असंवैधानिक व्यवहार करते हुए शपथग्रहण भी नहीं करने दिया गया था। दल के नेता के रुप में काम करने में रुकावटें पैदा की गई थी। उनके मौलिक अधिकारों को भी छीनते हुए जन उन पर मुकदमा चलाकर जेल भेज दिया गया था। इसकी देश भर में प्रतिक्रिया हुई। इंदिराजी की लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई। इसी बीच दुर्ग में नगर पालिका चुनाव भी संपन्न हुआ जिसका नेतृत्व दाऊ जी के कुशल हाथों में था। कांग्रेस के कई पार्षद व अनेकों नेता इंदिरा जी के समर्थन में जेल भरो आंदोलन में सक्रियता से भाग लिए थे। फलत: कांग्रेस प्रत्याशी जेल जाने के कारण बिना प्रचार व विशेष प्रयास के जीत गए। चुनाव संचालन के कारण दाऊ जी जेल यात्रा नहीं कर सके लेकिन उनके पास अभी भी १८०० जेल यात्रियों की सूची रखी हुई है। कांग्रेस कार्यकर्ताओं के जेल से छूटते ही मतदान हुआ था। दाऊ जी बड़ी सूझबूझ व चालाकी का परिचय देते हुए रायपुर नाका से जेल यात्रियों का जुलुस निकालकर शहर भर घुमा दिए जिससे माहौल इतना गरमा गया कि न केवल दुर्ग में बल्कि रायपुर में भी कांग्रेस रटरटाकर जी गई। इसी बीच इंदिरा जी को मजबूर होकर जनतादल की सरकार ने रिहा कर दिया। इसमें संजय गांधी का विशेष रोल था। इसमें संजय गांधी का विशेष रोल था। वे युवक कांग्रेस गठित कर युवकों को बटोरकर सरकार के नाक में दम करके रख दिए थे। वे बड़े कट्टर हिम्मती युवक थे। अंततोगत्वा जनता दल की सरकार टिक नहीं पाई। बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षा के चलते टूट फूट हुआ और (जद) जनता दल जद खद हो गया। परिणाम स्वरुप १९८० में पुन: चुनाव हुआ। इस चुनाव में इंदिरा जी ने देशव्यापी दौरा करने का रिकार्ड बनाया। इस चुनाव में इंदिरा जी ने देशव्यापी दौरा करने का रिकार्ड बनाया। उन्होंने तीन रात तीन दिन बिना सोये प्रचार किया। थोड़ी बहुत विमान में नींद ले लेती थी। दुर्ग में उनका कार्यक्रम ३२ बगले के बगल में रखा गया था जहां लोहे के शेड का मंच बना हुआ था। बहुत बड़ी आम सभा हुई थी। पांच लाख लोगों की भीड़ रही होगी जिसमें अधिकांश दूरदराज के गांवों से आये थे। इंदिरा जी दो ढाई बजे पहुंची सीधे मंच पर गई तथा भाषण देना शुरु कर दी। उन्होंने चन्दूलाल जी को बुलाकर परिचय कराया और कहा - ये हमारे कांग्रेस प्रत्याशी है इन्हें पंजा छाप पर मुहरलगाकर विजयी बनाएं। इसी अपील का परिणाम था कि चन्दूलाल जी एक लाख से भी अधिक वोट से जीते वे माधव राव सिंधिया के बाद दूसरे क्रम पर थे। १९७७ में राज्यों का भी चुनाव फिर से हुआ था जिसमें कुछ सीटों से भाजपा एक दो क्षेत्रों से निर्दलीय जीत गये थे। भाजपा से जीतने वालों में धर्मपाल गुप्त (धमधा) दिनकर डांगे (भिलाई) व गोफेलाल (मारो) प्रमुख थे। साथ ही दुर्ग से मोतीलाल वोरा, खेरथा से स्वयं दाऊ जी, व डौंडी से झुमुकलाल भेड़िया विजयी हुए थे। १९७७ से ८० में पुन: विधान सभा चुनाव कराया गया जिसमें कांग्रेस ने दुर्ग जिले की सभी ग्यारह सीटें हथिया ली। इस चुनाव में मारो से डी.पी. धृतलहरे, बेमेतरा से देवेन्द्र सिंह वर्मा, साजा से कुमारी देवी चौबे, धमधा से प्यारेलाल बेलचंदन, दुर्ग से मोतीलाल वोरा, भिलाई से रवि आर्या, पाटन से चेलाराम चन्द्राकर, खेरथा से दाऊ जी स्वयं, गुंडरदेही से हरिहर शर्मा, बालोद से हीरालाल सोनबोईर, व डौंडी लोहारा से झुमुकलाल भेड़िया सभी प्रत्याशी विधायक निर्वाचित हुए थे। मध्यप्रदेश में नेतापद के लिए अर्थात मुख्यमंत्री बनाने के लिए कवायद शुरु हुई जिसमें प्रणव मुखर्जी पर्यवेक्षक नियुक्त किए गए थे। तीन उम्मीदवारों ने दावेदारी पेश की थी - अर्जुनसिंह, शिवभानुसिंह सोलंकी व कमलनाथ। दाऊ जी व उनके साथियों की अर्जुनसिंह के साथ होने की बात दिल्ली में ही हो चुकी थी। एक दो को छोड़कर सभी विधायक एकजुट थे। आखिर अर्जुनसिंह जी मुख्यमंत्री बने और ८० से ८५ के बीच सबसे बेहतरीन मुख्यमंत्री के रुप में ख्याति प्राप्त् किए। उन्होंने किसान आयोग, पिछड़ा वर्ग आयोग (महाजन आयोग) एक बत्ती कनेक्शन, रिक्शा ठेला, झुग्गी झोपड़ी का मालिकाना हक देकर इतिहास रचा। इन्हीं के कारण वे भारी लोकप्रिय हुए।
१९८४ में इंदिरागांधी स्वयं के सुरक्षा गार्डोंा की गोलियों की शिकार हो गई। फिर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने और पुन: लोक सभा चुनाव हुआ। इंदिरा गांधी के निर्मम हत्या के कारण जनता की सहानुभूति कांग्रेस को मिली फलत: देश के ५४० में से ४२५ सीटें कांग्रेस को मिली। मध्यप्रदेश में भोपाल क्षेत्र में गैसकांड के कारण एक को छोड़कर ३९ क्षेत्रों में चुनाव हुआ सभी में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली। दो माह बाद भोपाल में संपन्न चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी ने ही जीत दर्ज की। इंदिरा गांधी की हत्या सिक्ख सुरक्षा कर्मी द्वारा किए जाने के कारण पूरे देश में सिक्ख समुदाय के साथ बड़ा दुर्व्यवहार भी हुआ। सिक्खों पर लोगों का इतना गुस्सा था कि कहीं कहीं पर इन्हें जला भी दिया गया। दिल्ली में स्थिति भयावह थी। फिर भी प्रधानमंत्री बनते ही राजीव गांधी चन्दूलाल जी को साथ लेकर दिल्ली में जगह जगह घूमें और कौम विशेष के खिलाफ हो रहे अभद्र व्यवहार को रोके। लोगों को उन्होंने समझाया कि ऐसा करने से मेरी माँ वापस नहीं आएगी। प्रधानमंत्री बनते ही देश की जनता का आशीर्वाद है कि नहीं यही सोचकर राजीव गांधी ने ८५ का आमचुनाव ८४ में कराया था। अगला चुनाव ८९ में होना तय था। इसी बीच राजीव गांधी पर बोफोर्स खरीदी में दलाली खाने का आरोप लगाकर कुछ कांग्रेसी सांसद ही आस्तीन का सांप सिद्ध हुए। इससे कांग्रेस को बड़ा धक्का पहुंचा फलत: दुर्ग से चन्दूलाल जी एक बार फिर चुनाव हार गए। फिर श्यामाचरण शुक्ला के नेतृत्व में १९९० में विधान सभा चुनाव संपन्न हुआ। इसमें कुछ क्षेत्रों से जनाधार वाले नेताओं की टिकिट काट दी गई कुछ के क्षेत्र बदल दिए गए दाऊजी को खेरथा से हटाकर गुंडरदेही से टिकिट दी गई। धमधा से जागेश्वर साहू की टिकिट दाऊ जी के अड़ जाने के कारण कटते कटते बची। पाटन से केजूराम वर्मा को टिकिट दिलाने का वादा करने के बाद भी श्यामाचरण जी उन्हें नहीं दिला पाये। अत: केजूराम का सहयोग दाऊ जी को नहीं मिल सका। वे २२ वोट से गुंडरदेही से चुनाव हार गए। अत: विधि के विधान के सामने नतमस्तक होकर चुनाव नहीं लड़ने का मन बना लिये। फिर भी १९९२ के लोकसभा चुनाव में चन्दूलाल जी को टिकिट दिलाने में उन्हें सक्रिय भूमिका निभानी पड़ी। दुर्ग लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकिट मोतीलाल वोरा को दिये जाने की घोषणा हो चुकी थी। इससे क्षुब्ध होकर चन्दूलाल चन्द्राकर के पक्ष में खुल कर सामने आ गए। वोराजी को टिकिट मिलने की जानकारी पाते ही दाऊ जी दिल्ली रवाना हुए। सांसद नहीं होने के कारण चन्दूलाल जी को सांसद बंगला छोड़ना पड़ा था और वे सरिता विहार में रहते थे। दाऊजी ने उन्हें खबर कर दी थी सो चन्दूलाल जी एरोड्रम में गाड़ी भिजवा दिए थे। रात १२ बजे दिल्ली पहुंचकर रात भर चन्दूलाल जी को टिकिट दिलाने ताना बाना बुनते रहे, रात भर सो नहीं सके, उधेड़बुन करते बैठे रहे। सुबह ८ बजे सरिता विहार से एक घंटे में अर्जुनसिंह के दरवाले पर पहुंचकर दस्तक दिए। वहां स्कू्रटनी कमेटी की मीटिंग चल रही थी। सूची में कांट छाट कर राजीव गांधी जी को सौंपा जाना था। सूची लेकर अर्जुनसिंह जी राजीव गांधी जी को सौंपा जाना था। सूची लेकर अर्जुनसिंह जी राजीव गांधी पास जाने की तैयारी में बाहर निकल रहे थे। दाऊ जी एक मिनट साहब कहकर उनके सामने आ गए। बात समझकर अर्जुनसिंह बोले - चन्दूलाल जी जीतने की स्थिति में नहीं हैं ऐसी रिपोर्ट मिली है, आप लड़ेंगे क्या ? इस पर दाऊ जी को कहना पड़ा - आपकी बातों पर क्या विश्वास करुं आप तो वोराजी की बात मान लिए हैं। आपका भी लोकसभा क्षेत्र महंगा पड़ सकता है। वहां ४० प्रतिशत कुर्मी रहते हैं। मैं वहां आप ही को हराने आऊंगा। अर्जुनसिंह बोले - मैं अभी जल्दी में हूं। रात ८ बजे आइए। राजीव गांधी ही पुनर्विचार कर सकते हैं। अर्जुनसिंह के बगल में अरविंद नेताम थे जोकि टिकिट वितरण समिति के सदस्य थे। उसी दिन उनके यहां कनक तिवारी ठहरे हुए थे। दाऊ जी उनके यहां जाकर उन्हें खरी खोटी सुनाते हुए बोले - कैसे जीतोगे देखेंगे। दुर्ग जिला के तीनों विधानसभा क्षेत्रों से ही तो जीतते हो। अत: विचार करो नहीं तो खतरे में पड़ोगे। इधर अर्जुनसिंह ने दाऊ जी की बात बड़ी गंभीरता से ले ली थी। उनके मुंह से निकल गया था - आप लड़ेंगे तो जरुर टिकिट देंगे। वे राजीव गांधी से बात किए और उन्हें बताया, दुर्ग में जरुर कुछ गलत हो गया है। चन्दूलाल जी को सुन लीजिए। उन्होंने गुलाम नवी आजाद से मिलने की सलाह दी और कहा, राजीव गांधी आएंगे तो बात करेंगे। रात ८ बजे उनके यहां गए तो पता चला कि राजीव गांधी से मुलाकात पक्की हो गई है। राजीव गांधी तब सत्ता में नहीं थे अत: शासकीय सुरक्षा नहीं थी। सेवादल के लोग भीतर जाने का काम देख रहे थे। रात में चन्दूलाल जी गए तो राजीव बोले - आज थके हैं बात नहीं कर सकते। कल आइए। जार्ज को फोन कर देना वे मुझसे मिलवायंगे। चन्दूलाल जी वापस आ गए। पुन: सबका रात जागरण हो गया। शाम तक बदरुद्दीन कुरैशी भी पहुंच गए थे। सुबह ९ बजे तीनों राजीव निवास गए। सेवादल वाले चन्दूलाल जी को जाने नहीं दे रहे थे। उसी समय उत्तरप्रदेश वालों का दल नारायण दत्त तिवारी, राजेन्द्र कुमारी बाजपेयी, मोहसिना किदवई के साथ अंदर जा रहे थे। सो दाऊ जी चन्दूलाल से बोले - इन्हीं के साथ जाएं और फोन करके हमें बुलवा लेना। चन्दूलाल अंदर घुस गए और फोन करके बाहर घोषणा कराए। दाऊ जी कुरैशी के साथ शीघ्र अंदर गए। राजीव गांधी तैयार हो रहे थे। चन्दूलाल जी गुलाम नवी के पास ही बैठे थे। दाऊ जी ने यू पी वालों से हालचाल पूछा तो पता चला कि वहां टिकिट का मापदंड निर्धारित किया गया है जिसके अनुसार ५० प्रतिशत टिकिट पिछड़ा वर्ग को दिया जाना था। यू.पी. बिहार में पिछड़े वर्ग की उपेक्षा का खामियाजा कांग्रेस को भोगना पड़ रहा था खासकर यादवों की धमाचौकड़ी के कारण। सो ऐसा निर्णय लेने मजबूर होना पड़ा था। किंतु म.प्र. में इसका तनिक भी पालन नहीं हो रहा था। चन्दूलाल को बुलाकर दाऊ जी ने तुरंत मापदंड के अनुसार म.प्र. में ४० में से २० टिकिट पिछड़े वर्ग को दिये जाने की बात बतायी। पर यह क्या ? म.प्र. में मात्र दो टिकिट ओ.बी.सी. को दिया जा रहा था। एक सुभाष यादव खरगोन से दूसरा विश्वेश्वर भगत बालाघाट से। चन्दूलाल फट से राजीव गांधी के कमरे मंे जाकर जार्ज से पूछे तो पता चला कि उक्त मापदंड हिन्दी भाषी राज्यों के लिए निर्धारित है। उन्होंने तुरंत म.प्र. में पालन नहीं होने की बात बता दी तथा लिस्ट मंगाकर तहकीकात करने व अर्जुनसिंह से पूछ लेने को कहा। अर्जुनसिंह से पूछा गया तो वे बोले कि दो से अधिक नहीं दिया गया है। इतना सुनना था कि राजीव गांधी झल्ला गए और निर्देश दिए- आज पुन: म.प्र. का पुनरीक्षण करेंगे और फार्मूला का पालन करेंगे। वे म.प्र. का लिस्ट ही निरस्त कर दिए व बैठक लेकर चन्दूलाल को दुर्ग से, भवानी वर्मा को जांजगीर से, श्रवण पटेल को जबलपुर से, बालकवि बैरागी को मंदसौर से टिकिट दे दिए। कुल आठ-दस सीट ओ.बी.सी. के खाते में डाल दिए। निर्धारित फार्मूला की अवहेलना की बात स्वयं नीति निर्धारक को ही पता नहीं था। अत: उनका आक्रोशित होना स्वाभाविक ही था। इस प्रकार अंतत: ओ.बी.सी. कार्ड खेलने से ही मामला सुलझ पाया। तत्काल दाऊ जी प्लेन से व कुरैशी ट्रेन से वापस हुए। दाऊ जी शाम ७ बजे दुर्ग पहुंचे। घर के लोग जानने की कोशिश किए पर वे बिना कुछ बताए सीधे गांव चले गए। लड़के पटाका फोड़कर हल्ला न कर दें इसीलिए गांव गए थे। ९ बजे वापस आए तो छिपाना मुश्किल हो गया। चन्दूलाल जी से सहानुभूति रखने वाले लोग उत्सुकतावश पूछने आ गए थे, सो छिपाना मुश्किल हो गया। आखिर रात १२ बजे फटाका फोड़ना शुरु हो गया। तब दाऊ जी ने कहा - जब जान ही गए हो तो एरोड्रम में हजारों की संख्या में स्वागत के लिए चलो। और यही हुआ भी। चन्दूलाल जी अरविंद नेताम के साथ आए। हजारों लोग स्वागत जुलुस में नया नारा बोल रहे थे। छत्तीसगढ़ के तीन लाल, अरविंद विद्या चन्दूलाल, इस बार लोक सभा चुनाव मई जून ९१ में संपन्न हुआ। चुनाव प्रचार की अवधि में ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। फलत: द्वितीय चरण का चुनाव एक माह के लिए स्थगित कर दिया गया था। इसी में दुर्ग क्षेत्र भी शामिल था। चन्दूलाल जी इसमें अच्छे मतों से जीतकर आए। इसके तुरंत बाद उन्होंने शीघ्रता पूर्वक पिछड़े वर्ग की बैठक बुला कर संगठन बनाया जिसके बैनर तले अर्जुन्दा में फरवरी १९९२ में विशाल पिछड़ा वर्ग सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें मुख्य अतिथि के रुप में तत्कालीन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुनसिंह पधारे थे। चन्दूलाल जी के हृदय में क्या था कोई नहीं जानता। एकाएक उन्होंने इसी मंच में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की मांग उठा दी। उन्होंने कहा कि मैं शेष जीवन में कोई महत्वकांक्षा नहीं रखता केवल छत्तीसगढ़ राज्य आंदोलन को समर्पित करना चाहता हूं। छत्तीसगढ़ की जनता को मानों इसी का इंतजार था, उन्हें व्यापक समर्थन मिला। कांग्रेस के तिरुपति अधिवेशन के बाद छत्तीसगढ़ राज्य सर्वदलीय मंच के अध्यक्ष मंडल गठित करने हेतु ३२ बंगला स्थित अरविंद नेताम के बंगले में बैठक आहूत की गई। अध्यक्ष मंडल में सभी सांसदों के साथ हरिठाकुर, राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल, सरयूकांत झा, सुधीर मुखर्जी सहित २३ सदस्य शामिल किए गए तथा ७० कार्यकारिणी सदस्य बनाए गए। दुर्ग जिला के लिए अर्जुन्दा के भागवत चन्द्राकर अध्यक्ष मनोनित किए गए थे। फिर बड़ी तीव्र गति से आंदोलन शुरु हुआ। दुर्ग जिला कमेटी गठित करके चन्दूलाल जी ने छत्तीसगढ़ के सभी जिलों का दौरा शुरु किया। उनके साथ दाऊ वासुदेव भी कांकेर बस्तर जाकर जगदलपुर में बैठक लिए। इसके पूर्व रायपुर व राजनांदगांव में भी गठित हो चुका था। अंत में सरगुजा रायगढ़ बिलासपुर का दौरा पूर्ण करके आखिरी बैठक कोलिहापुरी में आयोजित किए। सर्वदलीय मंच के संबंध में नीतिगत निर्णय बिलासपुर की बैठक में लिया जा चुका था। इसमें छत्तीसगढ़ महाबंद का निर्णय लिया गया था। छत्तीसगढ़ राज्य क्यों ? इससे किसान व्यापारी को क्या लाभ होगा ? सब कुछ स्पष्ट किया गया था। रेल रोको आंदोलन का भी आव्हान किया गया था। इसी लक्ष्य को पूरा करने ५ अक्टूबर ९२ को भिलाई में सर्वदलीय मंच के बैनर तले विशाल जुलुस निकाला गया जिसमें दो ट्रक मुर्रा आंदोलन में शामिल लोगों को बांटा गया था। इस अवधि में चूंकि गुजरात में प्लेग फैला हुआ था जिससे भयभीत होकर लोग रेलगाड़ियों द्वारा भाग रहे थे। अत: चन्दूलाल जी व वासुदेव दोनों को फोन द्वारा रेल रोकने से मना किया गया था अत: रेल रोको आंदोलन ड्राप करके जयंती स्टेडियम में इकट्ठा हुए थे। फिर जुलुस के साथ ट्रेक्टर में बैठकर भिलाई इस्पात संयंत्र में घुसने के उद्देश्य से इस्पात भवन की ओर रवाना हुए थे। किंतु बीच में ही रोककर वापस किया गया था। बाद में चन्दूलाल जी नरसिंहाराव तथा राजेश पायलट से भी मिलकर पृथक छत्तीसगढ़ राय की वकालत किए थे। साथ ही अथक प्रयास करके कांग्रेस के घोषणा पत्र में छत्तीसगढ़ राज्य का प्रस्ताव शामिल कराये थे। जिसे श्यामाचरण शुक्ला के विरोध के कारण हटा दिया गया था। बाद में दिग्विजय सिंह ने भरपूर सहयोग दिया था। विद्याचरण शुक्ला व मोतीलाल वोरा की राय में भी पृथक राज्य की आवश्यकता नहीं थी।

१९९३ के विधानसभा चुनाव में दाऊ जी को टिकिट देने की फिर बात होने लगी। किंतु वे चुनाव का चक्कर छोड़कर दूसरों को लड़ाना चाहते थे। लेकिन चन्दूलाल जी अड़ गए, वे बोले - मैं भी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ूंगा। टिकिट वितरण में यथास्थिति बनाये रखने का निर्णय ले लिया गया था। खासकर हारी हुई सीटों पर। दाऊ जी के सामने प्रश्न था कि पाटन, गुंडरदेही या भिलाई तीनों में कहां से लड़ें। भूपेश बघेल दाऊ जी के नाम से पाटन छोड़ने राजी हो गए थे। भिलाई दाऊ जी को इसलिए पसंद नहीं था कि बाहर वाले छत्तीसगढ़ राज्य की मांग के कारण हरा देंगे। दाऊ जी पाटन को उचित मान रहे थे। लेकिन चिंताराम चन्द्राकर ये मान बैठे थे कि टिकिट मुझे मिल रहा है अत: दाऊ जी का विरोध करना शुरु कर दिए। अनंतराम वर्मा पाटन, चेतन वर्मा बेमेतरा व रवि आर्या भिलाई सीट निकाल पायेंगे या नहीं इस पर बड़ी शंका थी। किंतु भिलाई का निर्णय उपर से ही हो गया जबकि पाटन व बेमेतरा को दाऊजी पर छोड़ दिया गया। दाऊ जी ने पाटन से भूपेश बघेल व बेमेतरा से चेतन वर्मा के पक्ष मं कार्य किया। दोनों जगह का बी फार्म उन्हें खाली सौंपा गया था सो उन्होंने भरकर पेश कर दिया। इस चुनाव में सभी जीत गए किंतु दाऊ जी पुन: गुंडरदेही से तथा बदरुद्दीन कुरैशी भिलाई से हार गये। दाऊ जी को हराने में रायपुर वालों ने सक्रिय भूमिका निभायी क्योंकि वे श्यामाचरण को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। जबकि दाऊ जी अर्जुनसिंह का पक्ष लेने वाले थे। इसीलिए श्यामाचरण ने ताराचंद साहू को भीतर से सहयोग दिया और दाऊ जी सोलह सौ वोट से हार गए। अब उन्होंने संगठन में काम करने का निर्णय ले लिया। पूरे पांच वर्ष बाद ९८ का चुनाव आ गया। इसमें डेरहूप्रसाद धृतलहरे व जागेश्वर साहू की टिकिट काट दी गई। बेलचंदन के स्थान पर प्रतिमा को खेरथा क्षेत्र से टिकिट मिली। इसमें भूपेश बघेल दुबारा जीतकर रिकार्ड बनाए लेकिन चेतन वर्मा हार गए। दुर्ग जिले की राजनीति में जो गंभीरता पहले थी वह प्रदीप चौबे के कांग्रेस प्रवेश से समाप्त् हो गई। विद्या की हुड़दंग की राजनीति चलाकर वे दो की टिकिट कटा दिए। इनमें डी.पी. धृतलहरे मारो से निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से भी भारी मतों से जीत गए जिससे गलत टिकिट वितरण का पर्दाफाश हो गया। वहां कांग्रेस प्रत्याशी कमला बघेल की जमानत तक जब्त हो गई। चौबे बन्धुओं की दखलंदाजी के कारण ही चेतन वर्मा हार गए। प्रदीप रविन्द्र के ऐसे कदमों के कारण ही दाऊ जी के साथ उनकी कटुता बढ़ने लगी। विधान सभा के इसी कार्यकाल में पृथक छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आ गया। राज्य बनने के पहले चन्दूलाल को सभी याद करते थे किंतु राज्य बनते ही उन्हें भूलने का प्रयास किया गया यह बात दाऊ जी को विशेष रुप से खली।

दाऊ जी का दाम्पत्य जीवन अत्यंत ही सुखमय तथा पारस्परिक तालमेल से परिपूर्ण रहा है। उन्हें चार पुत्रियां तथा दो पुत्र रत्नों की प्रािप्त् हुई। उनकी प्रथम संतान व ज्येष्ठ पुत्री का बाल्यकाल में ही निधन हो गया। द्वितीय पुत्री शकुंतला की शादी डॉ. कामदेव चन्द्राकर राखी वाले के साथ हुई। ज्येष्ठ पुत्र भारतभूषण का विवाह बकमा ग्राम की विद्याबाई के साथ संपन्न हुआ। द्वितीय पुत्र लक्ष्मण की शादी भनसुली ग्राम की अंबिका के साथ तथा पुत्री प्रतिमा का विवाह भनसुली वाले रामस्वरुप के साथ हुआ। दोनों शादियां गुरावट के रुप में एक साथ संपन्न की गई। उनकी एक पुत्री मीना रविशंकर विश्वविद्यालय के लेक्चरार नरेश बाघमार को ब्याही गई। श्री बाघमार अभी प्रोफेसर होंगे।

दाऊ जी एक ऐसे राजनेता हैं जिनका पं. रविशंकर शुक्ल से लेकर अजीत जोगी याने १९५२ से अब तक के सभी मुख्यमंत्रियों से संबंध रहा है। बी.एस.पी. के लिए किसानों की जमीन अधिग्रहण किए जाने पर उन्होंने पं. रविशंकर शुक्ला को आमंत्रित कर बैठक लिया और पर्याप्त् मुआवजा दिए जाने की मांग की थी। उन्होंने एक रुपया लगान पीछे ५००/- मुआवजा की मांग रखी थी। तदानुसार पं. शुक्ला ने मुख्य सचिव को बुलाकर बाजार दर से ३५०/- - ४००/- की दर सु मुआवजा दिए जाने की घोषणा की थी। इसी प्रकार काटजू, मंडलोई, डी.पी. मिश्रा आदि के साथ भी किसी न किसी मुद्दे पर चर्चा करने का अवसर दाऊ जी को मिला। प्रदेश के सभी मुख्यमंत्रियों के अलावा, संविद व भाजपा शासनकाल के सभी मुख्यमंत्रियों विशेष कर गोविंद नारायण सिंह, कैलाश जोशी, वीरेन्द्र कुमार सकलेचा व सुंदरलाल पटवा के कार्यकाल में भी काम करने का अवसर मध्यप्रदेश के विरले नेता को ही मिला होगा। दाऊ जी के मूल्यांकन में अर्जुनसिंह सर्वाधिक प्रभावशाली मुख्यमंत्री हुए। उन्हें सबसे अधिक खुशी इस बात की है कि छत्तीसगढ़ राय का सपना साकार हो गया है साथ ही इस बात का दुख भी है कि छत्तीसगढ़ राज्य के आंदोलन हेतु तन मन धन समर्पित करने वाले शीर्ष नेता चन्दूलाल चन्द्राकर को सुनियोजित ढंग से भूलने का प्रयास हो रहा है। वे अपने जीवन की दो घटनाओं का स्मरण कर रोमांचित हो उठते हैं ये हैं १९९२ में अर्जुदा में संपन्न विराट पिछड़ा वर्ग सम्मेलन जहां पर छत्तीसगढ़ राज्य का शंखनाद किया गया और भिलाई में छत्तीसगढ़ राज्य के समर्थन में निकाला गया विशाल जुलुस। इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के पूर्व एच.एस.सी.एल. में छत्तीसगढ़ के निवासी कर्मचारियों की छटनी कर बोकारों से बिहारी कर्मचारी लाये जाने का प्रबल विरोध करने में सक्रिय भूमिका निभाने को भी याद कर वे आल्हादित हो उठते हैं। उक्त अवसर पर धर्मपाल गुप्त के साथ धारा १४४ तोड़े थे और पुलिस द्वारा गिरफ्तार करके वे रायपुर जेल भेज दिए गए थे। तब झुमुकलाल भेड़िया, प्रदीप चौबे भी उनके साथ थे। चूंकि दाऊजी, भेड़िया, चौबे, धर्मपाल सहित सात आठ विधायक एक साथ आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे अत: सात आठ दिन तक गिरफ्तारी देने वालों का तांता लग गया था। तब जनता दल की सरकार थी फिर भी कांग्रेस व जनता दल सभी ने सर्वदलीय मंच से विरोध का बिगुल फूंका था। लगभग पांच छ: सौ आंदोलनकारी गिरफ्तार किये गए थे। जेल में विधायकों को बी ग्रेड की सुविधा दी जा रही थी जिसे नकारते हुए वे साधारण कैदियों के साथ रहने पर अड़ गऐ थे। यह मुद्दा मध्यप्रदेश विधान सभा में भी उठा। वहां भी प्रदेश के लोगों को बेरोजगार कर बाहर से कर्मचारी लाये जाने का विरोध किया गया तब जाकर सभी आंदोलनकारियों को छोड़ा गया। किंतु बिहारी कर्मचारियों की घर वापसी का कोई आवश्वासन नहीं मिला। अत: भिलाई के प्रतिबंधित क्षेत्र में पुन: आंदोलन कर स्थानीय लोगों को नहीं हटाये जाने की शर्त पर आंदोलन स्थगित किए। इस प्रकार दाऊ जी अपने जीवन में चार बार जेल गए। ग्राम कोड़िया के चारागाह प्रकरण में, फिर नया मध्यप्रदेश बनने पर, एच.एस.सी.एल. प्रकरण के अलावा ९० से ९५ के बीच झुग्गी झोपड़ी तोड़े जाने का विरोध करने के कारण भी उन्हें जेल जाना पड़ा था। हुआ ये था कि भिलाई में झुग्गी झोपड़ी तोड़े जाने की मुहिम के अंतर्गत बुलडोजर चलाये जाने से एक बच्चे की मृत्यु हो गई थी। इससे अशांत वातावरण बन गया था। दाऊ जी अपने साथियों सहित बुलडोजर के सामने खड़े हो गए थे। तब उन्हें कुरैशी व निरंकारी ने भी साथ दिया था। काम रोकने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर दुर्ग जेल में रखा गया था।

छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पूर्व डॉ. खूबचंद बघेल के जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में स्वाभिमान रैली आयोजित करने की तैयारी चल रही थी। सर्वप्रथम २ जुलाई को बघेल के जन्म स्थान ग्राम पथरी में जयंती मनाई गई जिसमंे केयूरभूषण, पुरषोत्तम कौशिक बालचंद कछवाहा आदि प्रमुख वक्ता थे। इसमें दाऊजी भी आमंत्रित किए गए थे। उनके साथ परदेशी राम वर्मा व बसंत देशमुख भी शामिल हुए थे। दाऊ जी ने अपने भाषण में एक विशेष नजरिया पेश किया। उन्होंने कहा कि आखिर ऐसी कौन सी परिस्थिति निर्मित हुई कि आजादी के बाद सन १९५२ में डॉ. बघेल, ठाकुर प्यारेलाल, विश्वनाथ यादव तामस्कर जेसे नेताओं को कांग्रेस के विरोध में चुनाव लड़ना पड़ा। इसके कारण को ध्यान में रखते हुए आंदोलन चलाकर हमें छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को जगाना पड़ेगा। इसे किसी जाति विशेष तक सीमित न रखें। यद्यपि यह मनवा कुर्मी समाज की अगुवाई में संपन्न हो पर सभी जाति प्रधानों को आमंत्रित कर उन्हें पगड़ी पहनाकर बिठाये व स्वाभिमान की याद दिलाएं । उन्हें बताये कि रात दिन गुलामी करने पैदा नहीं हुए हं। हम इतना ताकत रखते हैं कि राज भी चला सकते हैं और काज भी। इसी अवधि में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की स्थिति डगमग चल रही थी। अत: सभी ने दाऊ जी के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। तदनुसार १९ जुलाई को ऐतिहासिक रैली मनवा कुर्मी समाज के संयोजकत्व में संपन्न हुई जिसमें विभिन्न समाज प्रधानों का पगड़ी पहना कर सम्मान किया गया तथा वर्षा के बावजूद भी शहर घूमकर गांधी चौक में एकत्र हुए और घंटो तक हजारों लोग भींगते हुए खड़े रहे। इसी प्रकार बिलासपुर में भी ३० अगस्त को स्वाभिमान रैली की पुनरावृत्ति हुई। मुख्यमंत्री चयन में खरीद फरोख्त होने का भी अंदेशा था सो आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की मांग उठाई गई। राज्य बनते समय कांग्रेस पक्ष के ४८ विधायक थे। साथ ही ३ बसपा २ निर्दलीय व एक गोंगपा से थे। भाजपा के ३६ विधायक थे। विद्याचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए हुए थे। अत: बहुत हाथ पैर मारे। कुछ विधायकों को वे मोटी मोटी रकम को लालच देकर तोड़ भी लिए थे। घनाराम साहू, ताम्रध्वज साहू, डोमेन्द्र भेड़िया व रविन्द्र चौबे आदि वी.सी. के साथ मिल गए थे तथा राज्य निर्माण की रात उन्हीं के यहां थे। डेरहूप्रसाद धृतलहरे, बी.डी. कुरैशी, भूपेश बघेल व प्रतिमा दाऊ जी के साथ थे। राजनांदगांव जिला से देवव्रत, धनेश पाटिला, मो. अकबर का रोल भी अनूकूल नहीं था। कवर्धा से योगीराज सिंह भी डांवाडोल की स्थिति में थे। स्वाभिमान रैलियों के कारण ही छत्तीसगढ़ के अनुरुप मुख्यमंत्री बनाने एकजुटता स्थापित हो सकी थी। कुल २७ आदिवासी विधायक होने के कारण उनका स्वाभिमान जगाना पहले आवश्यक था अन्यथा उन्हें तोड़कर ले जाते। अत: दाऊ जी स्वयं दिल्ली गए, भोपाल में भी बैठक लिए। रायगढ़, सरगुजा, जगदलपुर दंतेवाड़ा का दौरा किए। वे तीन बार दिल्ली गए, २ बार भोपाल में बैठक लिए, २ बार सरगुजा रायगढ़ प्रवास किए व एक बार बस्तर का दौरा किये। ऐसा करके उन्होंने सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाने का प्रयास किया। यद्यपि अनेक लोग ऐसा मानते हैं कि जोगी जी को सोनिया गांधी ने आदिवासी होने की अपेक्षा ईसाई होने के कारण मुख्यमंत्री बनाया। परन्तु वातावरण निर्मित किया जाना भी नितांत आवश्यक था। विद्याचरण से सोनिया नाराज चल रही थी किंतु सी.एम. की कुर्सी पर गिद्ध दृष्टि लगाए मोतीलाल वोरा भी दिल्ली में बैठे हुए थे। श्यामाचरण शुक्ला अथवा वोरा के मुख्यमंत्री बनने पर वी.सी. भी विरोध नहीं कर पाते। इधर ३१ अक्टूबर की रात केन्द्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी रायपुर में आसन जमाकर ऐसी स्थिति निर्मित कर दिए थे कि राज्यपाल के शपथ ग्रहण के बाद सी.एम. का शपथ ग्रहण २० मिनट रोक दिया गया था। क्यों ? इसलिए कि आडवानी जी को बताया गया था कि वी.सी. बहुत से कांग्रेस विधायक तोड़कर बैठे हैं। भाजपा यदि सहयोग करे तो वे सरकार गठित कर सकते हैं। लेकिन २० मिनट के गैप में वी.सी. का १६ विधायक उनके साथ होने का दावा सच नहीं निकला उनके पास केवल ८ विधायक बचे थे। ऐसा दिग्विजय सिंह व श्यामाचरण के समझाने के कारण संभव हो सका था। अमितेष, हर्षद मेहता, धनेन्द्र साहू श्यामा के साथ थे वहीं कुछ और विधायक भागकर आ गए थे इनमें ताम्रध्वज साहू, डोमेन्द्र भेड़िया, महेन्द्र बहादुर सिंह, देवेन्द्र बहादुर आदि प्रमुख थे। राजनांदगांव वाले भी मौन तोड़कर करवट बदल लिए थे। वी.सी. के पास अब मात्र आठ विधायक रह गये थे जिन्हें मिलाकर भाजपा सहित ४४ विधायक हो रहे थे। यहां खतरा ये था कि कांग्रेस से दलबदल करने वाले एक तिहाई नहीं होने के कारण आठों की विधानसभा सदस्यता समाप्त् हो जाती। जब आडवानी जान गए कि १६ विधायक तोड़ने में वी.सी. कामयाब नहीं हो सके हैं तो शपथग्रहण करा दिया गया। यदि सभी विधायक वी.सी. के बंगले में रुकते तो राज्यपाल शपथ लेते, मुख्यमंत्री नहीं ले पाते। किंतु ८ की संख्या के कारण अजीत जोगी के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो गया।

१९७२ में जब विधानसभा चुनाव में गुंडरदेही क्षेत्र से २४७ वोट से हार गये तब वे जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष नहीं बने थे। अत: राजनीतिक कार्यभार अधिक नहीं था। इसी अवधि में उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र भारतभूषण, कनिष्ठ पुत्र लक्ष्मण की शादी के साथ साथ पुत्री प्रतिमा के भी हाथ पीले किए। दाऊ जी अपने सभी पुत्र पुत्रियों को अधिक नहीं पढ़ा लिखा सके। जब बच्चे पढ़ रहे थे तब वे ठेकेदारी कर रहे थे। बच्चे सोचते थे कि हम बड़े बाप के बेटे हैं। अत: पढ़ने लिखने में बड़ी लापरवाही बरत रहे थे। दाऊ जी ने काफी प्रयास करके लक्ष्मण को इंजिनियरिंग कालेज में प्रवेश दिलाया था पर वह अनुपस्थित रह रह कर बीच में ही पढ़ाई छोड़ दिए। गोरखपुर से लौटकर दाऊजी भूषण को नेशनल हाईस्कूल दुर्ग में भर्ती कराये थे पर वे नहीं पढ़ सके। प्रतिमा आर्य कन्या शाला से मेट्रिक तक पढ़ने में सफल हुई। लक्ष्मण जब शासकीय हाई स्कूल दुर्ग से मेट्रिक पास हुए तो श्यामाचरण शुक्ल के मुख्यमंत्रित्व काल में शिक्षा राज्यमंत्री सुशीला दीक्षित से अनुसंशा कराकर इंजीनियरिंग कालेज में भर्ती करा दिए थे। अर्थात दाऊ जी ने अपने बच्चों की शिक्षा राज्यमंत्री सुशीला दीक्षित से अनुसंशा कराकर इंजीनियरिंग कालेज में भर्ती करा दिए थे। अर्थात दाऊ जी ने अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा में कोई कसर बाकी नहीं रखी फिर भी बच्चों के नहीं पढ़ पाने को वे दुर्भाग्य की ही श्रेणी रखते हैं। आज उनका भरापूरा परिवार हैं। किसी बात की कमी नहीं है। अपने पुत्र पुत्रियों को नातियों सहित अपने साथ सहेज कर रखे हुए हैं यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि है। अप्रेल मई १९९३ में उन्हें पुत्र विछोह का भी सामना करना पड़ा। उनके ज्येष्ठ पुत्र भारत भूषण को क्रूर काल ने असमय ही छीन लिया। पुत्र विछोह के साथ ही चुनाव में उतार चढ़ाव हारजीत झेलने के बाद भी दाऊजी कभी कर्त्तव्य विमुख नहीं हुए। १९९० में मात्र २२ वोट से चुनाव हारने के बाद उनमें वैराग्य का उदय अवश्य हुआ था। तब उनका ध्यान आध्यात्मिकता की ओर बढ़ा था। इसके पूर्व वे सभी प्रकार की चीजें खाते पीते थे पर अब वे मांसाहार के साथ साथ पान तम्बाकू का भी परित्याग कर दिये हैं। हुआ ये कि उनके अग्रज दाऊ महासिंग ओटेबंद में भागवत सप्तह का आयोजन कराये थे जिसे संपन्न कराने आचार्य देवजी महाराज ओटेबंद पधारे हुए थे। यही दाऊ जी देवजी के संपर्क में आये और उन्हीं के प्रभाव में मांसाहार व मद्यपान को तिलांजलि दे दिए। पहले वे सिगरेट भी खूब पीते थे पर उसे भी १९९० के बाद छोड़ दिए। वैसे वे किसी भी आदत से बंधकर नहीं रहे। आजकल वे नियमित रुप से तीन चार बजे प्रात: उठकर बिना चाय पिये पहले चार पांच गिलास पानी पी जाते हैं उसके बाद योगासन करते हैं। उन्होंने ९४-९५ में योग की दीक्षा भी ली थी। उनकी योग प्रक्रिया नियमित चल रही है। भोपाल दिल्ली जाते समय ट्रेन में भी नीचे की सीट में बैठकर योगासन कर लेते हैं। उसे कभी खंडित नहीं होने देते। आसन से निवृत्त होकर ईशा स्मरण करते हैं फिर प्रतिदिन एक घंटा राम चरितमानस की १५-२० चौपाई पढ़ लेते हैं। उनका सबसे प्रिय ग्रंथ राम चरितमानस ही है। स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहते हुए भी संकल्प शक्ति दृढ़ है। मांसाहार को हाथ नहीं लगाते किंतु परिवार के सदस्यों पर कोई पाबंदी नही थोपते। प्याज लहसुन भी उन्हें पसंद नहीं है। प्रतिदिन भगवान को भोग लगाने के बाद ही खाना खाते हैं। दिन में भगवान के भोग के लिए बगैर लहसुन प्याज का भोजन बनता है, उसी को दाऊजी खाते हैं। रात में दूध का भोग लगता है। दाऊजी मानते हैं कि यदि नैतिक पक्ष मजबूत रखें तो पहाड़ से भी टकराने की क्षमता आती है। साथ ही अन्याय से लड़ने का साहस भी बढ़ जाता है। बेटे नातियों से संयुक्त परिवार में सभी उनकी नैतिकता के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। घर भर के लोग उनकी नैतिक पक्ष को मजबूती से अभिभूत हो जाते हैं। वे खानपान में अपव्यय करने के पक्ष में नहीं रहते इसी कारण परिवार के लोग उनसे भय खाते हैं। केवल एक लड़की प्रतिमा ही बैठ कर उनसे बात करती हैं। प्रतिमा के बोलने की शैली सामने वाले को प्रभावित करती है।

दाऊजी स्वयं नवीं कक्षा तक ही शिक्षा ग्रहण कर पाये किंतु उन्हें हिन्दी साहित्य तथा अंग्रेजी भाषा का पर्याप्त् ज्ञान है। हिन्दी का ज्ञान उन्हें तुलसी कृत रामायण पढ़ने से हुआ। ठेकेदारी में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल ताता था अत: किंचित मात्रा में अंग्रेजी पढ़ना लिखना सीख गए। हिन्दी भाषा ज्ञान का पूरा श्रेय वे रामायण को ही देते हैं। जीवन को निष्काम कर्मयोगी की तरह जीने को ही वे श्रेष्ठ मानते हैं। उनके अनुसार किसी भी काम में कोई आशा पालकर नहीं रखना चाहिए। जैसे किसान खेत में फसल उगाता है पर फल उसके हाथ में नहीं आता। वैसे ही प्रत्येक चीज ईश्वर के हाथ में है ऐसा मानने से कम विषाद होता है। दाऊ जी हमेशा हर्ष विषाद में सम रहने की कोशिश किए हैं। ज्येष्ठ पुत्र के असामयिक निधन पर उनकी आंखों से एक बूंद भी आंसू नहीं निकला क्योंकि उन्होंने उसे विधि का विधान समझकर सहज रुप से स्वीकार कर लिया। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की भारी चर्चा थी पर नहीं बनाये गये, इस पर उन्हें कोई खास विषाद नहीं हुआ।

दुर्ग में कांग्रेस का दो गुट रहा है। उदयरामजी और दाऊ जी अलग अलग गुट से संबंध रखते थे। दोनों की प्रतिद्वंदिता कांग्रेस भवन तक ही सीमित थी। उदयराम जी हमेशा दाऊ जी के यहां ही भोजन करते थे। विरला ही दिन ऐसा जब दोनों एक साथ खाना नहीं खाते हों। उदयराम जी कभी कभी बाई को (दाऊजी की धर्मपत्नी बोधनी बाई) फोन करके अपने पसंद का खाना पकाने भी कहते थे। शाम को दोनों एक साथ भोजन करते थे। यह दाऊ जी की विशेष राजनीतिक शैली थी। जैसे कौरव पांडव दिन भर लड़कर शाम को साथ मिलकर खाना खाते थे, लगभग यही शैली थी दाऊ जी की। यद्यपि मोतीलाल वोराजी १९७२ में दाऊ जी के साथ ही कांग्रेस में आए तथापि उन्हें वे वरिष्ठ नेता की श्रेणी में रखते हैं। दाऊ जी श्यामाचरण जी को बहुत आदर देते हैं भले ही आज उनसे उतना अच्छा संबंध नहीं है। श्यामा के प्रति उनकी आस्था पूर्ववत बनी हुई है इसीलिए उन्हें प्रणाम करते हैं। किंतु विद्याचरण से भेंट हो जाने पर उन्हें मात्र नमस्कार कर लेते हैं। उनसे घनिष्ठता आज तक नहीं बन पाई। चौबे परिवार से दाऊ जी की बड़ी घनिष्ठता रही है। वे आज आश्चर्यचकित है कि जिस परिवार के साथ घनिष्टता का पौधा उन्होंने बड़े जतन से पल्लवित किया था वह मुरझा क्यों गया ? जब भी देवी प्रसाद चौबे दाऊजी के यहां भोजन करते, चौबे जी की रुचि का विशेष ध्यान रखा जाता। इसी प्रकार जब दाऊ जी मौंहाभाठा जाते तो वहां कढ़ी जरुर बनता, अर्थात चौबे जी दाऊ जी के पसंद का भोजन बनवाते थे। प्रदीप के कांग्रेस प्रवेश के पूर्व रविन्द्र से दाऊ जी का कोई झगड़ा नहीं था। प्रदीप के साथ जनता दल संस्कृति भी कांग्रेस में प्रविष्ट हो गई जिससे आपसी संबंध टूटता गया। अब दाऊजी सोचते हैं कि जीवन की संध्या में क्या बच्चों से लड़ना। इसीलिए वे चौबे बन्धुओं को रचनात्मक सोच बनाने की सलाह देते हैं। एक बार वे प्रदीप से पूछे - ये बताओ, एक बार जनता लहर में विधायक बन गये, पर उसके अलावा क्या मिला ? कांगे्रस में महामंत्री जरुर बन गये तथा लोकसभा का टिकिट पाने में भी कामयाब रहे पर हार गये क्योंकि लहर ही ऐसा था। वे किसी के कारण नहीं हारे। दुर्ग भिलाई कुम्हारी तक जी.ई. रोड के आसपास के बाहरी मतदाताओं द्वारा भाजना के पक्ष में किया गया भारी मतदान ही उनकी हार का प्रमुख कारण था।

दाऊ जी अक्सर प्रदीप चौबे को उपदेशात्मक लहजे में सलाह देते हुए कहते हैं - राजनीति में खुराफाती करने की प्रवृत्ति खुद को नुकसान पहुंचाती है, पहले अपनी लाइन तय करो कि क्या बनना है। जिस दिन हम दोनों एक साथ बैठेंगे दुर्ग जिले की राजनीति सही चलेगी। वोराजी से दाऊ जी का थोड़ा बहुत वैचारिक मतभेद अवश्य रहा है। अब उन्हें वे दिल्ली का नेता मानते हैं। इसलिए अभी उनसे मिलने दिल्ली गए थे। चौबे परिवार से अपने पुराने घनिष्ठ संबंध को याद करके आज भी दाऊ जी भाव-विभोर हो उठते हैं। इसीलिए वे अक्सर रविन्द्र चौबे को पुराने रिश्ते को याद दिलाते हुए कहते हैं- १९७५ में जब चौबे जी कैंसर से पीड़ित थे। बम्बई जाने के लिए गाड़ी में बैठे थे, गाड़ी छूटने वाली थी, कुमारी देवी भी थी, मैं भी था, तब चौबे जी, कुमारधर को बुलाकर बोले - देखो कुमारधर मैं जीऊंगा या मर जाऊंगा कोई ठिकाना नहीं है। कांग्रेस संगठन का चुनाव होना है, तुम दाऊ के खिलाफ मत जाना। हम दाऊ को ही अध्यक्ष बनाना चाहते हैं। यह कितनी बड़ी चीज है। यह एहसान कैसे भूल सकता हूं। प्रदीप एक हजार वोट से जनता दल से जीते थे। अत: उनकी दावेदारी थी। लेकिन टिकिट परिवार के बाहर मत जाए, इसीलिए कुमारी देवी को टिकिट दिलवाया था। तुम्हारी निष्ठा कहीं भी होगी पर माँ की निष्ठा के लिए अपनी दलीय निष्ठा छोड़ना पड़ेगा। कैसे करके कुमारी देवी चौबे के लिए हां कराया तब मैं चौबे जी के ऋण से मुक्त हुआ। यद्यपि कुमारधर मेरे खिलाफ खड़ा हो गए फिर भी जीता। लेकिन मैं कुमारी देवी को हर हाल में राजी किया, टिकिट दिलाया व जिताया। इस खानदान के राजनैतिक अस्तित्व को बरकरार रखने की नैतिक जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी,ि‍जसे पूरा किया।

वैसे दाऊजी जी अपने प्रतिद्वन्दी के रुप में किसी को नहीं देखा। उनकी मानसिकता कभी इस प्रकार की नहीं रही। अब तो ७५ के हो गए, किसी से अब क्या प्रतिद्वन्दिता करना ? अब वे निष्काम भाव से सब कुछ ईश्वर पर छोड़ते हुए करते हैं -
होइ हैं सोई जो राम रचि राखा।

०००

No comments:

सत्वाधिकारी प्रकाशक - डॉ. परदेशीराम वर्मा

प्रकाशित सामग्री के किसी भी प्रकार के उपयोग के पूर्व प्रकाशक-संपादक की सहमति अनिवार्य हैपत्रिका में प्रकाशित रचनाओं से प्रकाशक - संपादक का सहमत होना अनिवार्य नहीं है

किसी भी प्रकार के वाद-विवाद एवं वैधानिक प्रक्रिया केवल दुर्ग न्यायालयीन क्षेत्र के अंतर्गत मान्य

हम छत्तीसगढ के साहित्य को अंतरजाल में लाने हेतु प्रयासरत है, यदि आप भी अपनी कृति या रचना का अंतरजाल संस्करण प्रस्तुत करना चाहते हैं तो अपनी रचना की सीडी हमें प्रेषित करें : संजीव तिवारी (tiwari.sanjeeva जीमेल पर) मो. 09926615707